SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग शास्त्र [१०१ किसी भी गच्छ, वेष, धर्म या देश का हो, सम्यग्दृष्टि माना जाएगा। सच्चा सो मेरा-सम्यग्दृष्टि का स्पष्ट विचार होता है"सच्चा सो मेरा।" "मेरा सो सच्चा” का कदाग्रह उसे कभी नहीं होता । आग्रह ग्रहित हो जाने पर प्रेताविष्टवत् व्यक्ति सत्य से पराङमुख हो जाता है । वह पीलिया के रोगी की तरह सर्वत्र पीला- पीला ही देखता है । “यथा दृष्टिः, तथा दृष्टि: ।" उस की दृष्टि ही कलुषित होती है । वह सत्य गंवेषणा के लिए अयोग्य प्रमाणित हो जाता है । ऐसे व्यक्ति से विवाद करना भी व्यर्थ होता है । सत्य का आग्रह हो तथा असद् का कदाग्रह कभी न हो। कदाग्रही का सम्पूर्ण अभिलाप न केवल मूर्ख का प्रलाप होता है, अपितु उस की प्रत्येक बात में विचारा धारा में 'वदतोव्याघात' के लक्षण भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं । आज आप जैन हैं । जैन होने से आप को यह अधिकार नहीं मिल जाता है, कि आप सभी धर्मों को असत्य कह दो । आज आप जैन न होकर मसलमान होते, तो किस धर्म को सत्य कहते ? किसी भी धर्म की सत्यता का आग्रह गलत है। धर्म तत्व सत्य होता है, परन्तु जब वह सम्प्रदाय युक्त हो जाता है, तो असत्य मिश्रित हो जाता है। सम्प्रदाय की नींव ही असत्य पर होती है। जैन धर्म सत्य है, परम सत्य है, क्योंकि आप्त सर्वज्ञ निरुपित है । परन्तु यदि अन्य धर्मों के प्ररूपयिता भी सर्वज्ञ हैं, तो वे धर्म सत्य क्यों न होंगे । बुद्ध, कृष्ण, ईसा, राम की सर्वज्ञता में सन्देह हो सकता है । परन्तु सभी धर्मों (तथाकथित धर्मों) को सर्वथा असत्य कहना भी गलत है। सत्य का कोई भी जनक नहीं। वह व्यापक है । सीमाओं से अस्पृष्ट है । वह विशाल है । अनेकान्त युक्त है । उसे मर्यादित कहना, एक स्थान पर स्थित कहना ही अनुचित है । सत्य जहां भी प्राप्त हो, उसे ग्रहण करना चाहिए। जहां सत्य प्राप्ति की संभावना हो, वह कोई भी गच्छ या संप्रदाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy