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________________ १००] सम्यग्दशन : मोक्ष का प्रथम सोपान चित्त रह कर मैत्री भाव की साधना करता है । उसका अनन्तानुबंधी कषाय उपशांत होता है। वह देहाभिन्न आत्मा के कर्मफल को मानता है। ऐसी स्थिति में न आसक्ति होती है, न मिथ्यात्व । संवेग-वह देवता तथा मानव के भौतिक सुखों को तुच्छ समझता है तथा मोक्ष सुख को ही आत्म सुख मानता है। सम्यग्दृष्टि जीवड़ो, करे कुटुम्ब प्रतिपाल । __ अन्तर से न्यारा रहे, ज्यूँ धाय खिलावे बाल ॥ जैसे धाय माता (धात्री) बालक का पालन पोषण करते हुए अन्तर्मन से प्रेमाकुल न हो कर, प्रतिक्षण यही समझती है, कि यह बच्चा मेरा नहीं है। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव भी संसार में रहता हुआ, परिवार का पालन पोषण करता हुआ महल आदि में अन्तर्मन से उस में लिप्त नहीं होता । उस में ममत्व बुद्धि कम हो जाती है। उसका मन 'निर्वेद' तथा 'संवेग' में तत्पर रहता है । वह संसार से वैराग्यवान् होता है, मोक्ष से कुछ पथक रहता है तथा साधुत्व के मार्ग को ही सम्यग् मागं मानता है । चारित्र ग्रहण का भाव रखता है । वह संसार से अलिप्त रह कर अपराधियों के प्रति भी मध्यस्थ भावना से युक्त रहता है। अनुकम्पा-सम्यग्दृष्टि में दया भावना का अजस्र स्रोत सदैव प्रवाहमान होता है। किसी दुःखो दरिद्री को देख कर वह उस के दुःख को विपरीत करने के लिए त्वरित गत्या सचेष्ट हो जाता है । यथा शक्ति धन की सहायता, सेवा-शुश्रुषा के द्वारा उस के दुःख को कम कर देता है । वह करुणा की प्रतिमूर्ति होता है । यदि दुःखी को देख कर करुणा का भाव उत्पन्न नहीं होता, तो समझो, कि सम्यग्दर्शन में कहीं कमी है। जब तक शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा तथा आस्था-ये ५ लक्षण व्यक्ति में विकसित नहीं होते, सम्यग्दर्शन का पूर्ण शुद्ध अस्तित्व सन्दिग्ध ही कहा जाएगा। पांच लक्षणों से युक्त व्यक्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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