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योग शास्त्र हारिक अर्थ है। परन्तु सम्यग्दर्शन का नैश्चयिक अर्थ है-भेद विज्ञान । आप को शरीर तथा आत्मा की पथकता का न केवल विश्वास हो, अपितु उस की प्रतीति भी हो । किसी व्यक्ति या वस्तु अथवा धन के वियोग में दुःखी होना, शोकातुर हो जाना, यह सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं । यदि उस ने धन या प्रियपात्र को शरीर की तरह पृथक् माना होता, तो वह शोक क्यों करता ? यही मोहनीय कर्म का उदय है, जिस के कारण मिथ्यात्वमोहनीय का भी उदय होता है। यदि व्यक्ति को स्व तथा पर का, जड़ तथा चेतन का, भेद ज्ञान नहीं, तो अकेला व्यवहारिक श्रद्धात्मक सम्यक्तव, व्यक्ति का कल्याण करने में सक्षम न होगा। व्यवहारिक श्रद्धा तो अभव्य को भी हो सकती है, अतः सम्यक्त्व के इस लक्षण से ऊपर उठने की आवश्यकता है।
पञ्च लक्षणी-सम्यक्त्व की पंचलक्षणी में शम, संवेग, निर्वेद, आस्था तथा अनकम्पा सम्मिलित हैं। इनमें आस्था प्रथम है, तत्पश्चात् ही क्रमशः अनुकम्पा निर्वेद, संवेग तथा शम का उदय होता है । आस्था बीज है । आत्मा नींव है। आस्था से जीवन निर्माण प्रारम्भ करना है । आस्था को जीवन का सूत्र बनाना है।
सम्यक्त्व प्राप्ति की भी अद्भुत प्रक्रिया है। कैसे व्यक्ति अमुक कर्मों के क्षयोयशम के पश्चात् ग्रन्थि देश तक आता है तथा तत्पश्चात् ग्रन्थि भेद करता है । अपूर्व करण का अपूर्व रसास्वादन करता हुआ वह सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है, यह भी ज्ञातव्य है, परन्तु स्थानाभाव से इस का विशेष वर्णन नहीं करूंगा। सम्यग् दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् जीव में आत्मोत्थान के लक्षण प्रकट होने प्रारम्भ हो जाते हैं । आस्था, श्रद्धा, देव गुरु धर्म की हो, आत्मा परमात्मा की हो । आत्मा नित्य है, कर्ता है, भोक्ता है, मोक्ष का उपाय भी है। आत्मा के ये लक्षण सम्यक् दृष्टि में होने आवश्यक हैं।
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