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सम्यग्यदर्शन : मोक्ष का प्रथम सोपान
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आचार्य सदृश अभव्य प्राणी भी रुचि न होने के कारण सम्यग् दर्शन को प्राप्त न कर सके ।
यथा पत्थर नदी में घर्षण को प्राप्त हो कर काल परिणाम से स्वयं छोटे तथा गोल बन जाते हैं, तथैव स्वयमेव जब कर्मों की अवधि एक कोटाकोटि सागरोपम तक परिसीमित हो जाती है तो प्राणी यथाप्रवृतिकरण के द्वारा ग्रंथि देश में आता है, वहां कुछ भव्य प्राणी कुछ देर स्थिर रह कर भी उस राग द्वेष की ग्रन्थि को छेद देते हैं । यह अपूर्व करण है । तत्पश्चात् अनिवृत्तिकरण तथा अन्तरकरण करने के बाद मिथ्यात्व को दूर करते हुए अन्तर्मुर्हत की स्थिति वाले औपशामक् सम्यक्त्व को प्राप्त करता है | यह सम्यक् दर्शन स्वतः प्रकट होता है । परन्तु गुरु कृपा एवं गुरुबोध के द्वारा जो सम्यक् दर्शन होता है, वह अधिगम सम्यक्त्व कहा जाता है । अर्थात् भटका हुआ व्यक्ति कभी कभी अकस्मात् ही सही मार्ग को पा लेता है, तो कभी-कभी किसी मार्ग-दर्शक की कृपा से
सम्यग् दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् ही यम, नियम, श्रुतज्ञान, चारित्र, तप आदि की प्राप्ति सार्थक है । यदि सम्यक् दर्शन का अभाव हो, तो समस्त धर्म क्रियाएं मोक्ष सुख की प्राप्ति में साधक नहीं बन सकती हैं । श्रीकृष्ण, रावण तथा श्रेणिक महाराजा ने इसी सम्यक्त्व की कला से अपनी भवस्थिति को सीमित कर लिया था ।
वस्तुतः सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में राग तथा द्वेष की विशेष अल्पता होनी चाहिए । जब तक राग द्वेष रूपी प्रगाढ़ बादल आत्मा पर छाए रहते हैं, तब तक सम्यग् दर्शन का सूर्योदय नहीं हो सकता । सम्यक्त्वी जीव भी राग द्वेष के वशीभूत होकर सम्यक्त्व से पतित हो जाता है, अतः मूलतः यह सम्यक् दर्शन जहाँ धर्म का मूल है, वहां राग द्वेष का त्याग समस्त साधनाओं का
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