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सम्यग् दर्शन : मोक्ष का प्रथम सोपान
रूचि जिनोक्त तत्त्वेषु सम्यक् श्रद्धानमुच्यते । - जायते तन्निसर्गेण, गुरोरधिगमेण वा ॥
अर्थ-जिन भगवान के द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्त में रुचि ही सम्यक् दर्शन है । यह सम्यग् दर्शन (श्रद्धा) स्वभाव से तथा गुरु के उपदेश से ही होता है।
विवेचन- इस श्लोक में रचयिता ने जिन सिद्धांत को सम्यग् दर्शन कह कर अनेक शंकाओं का समाधान कर दिया है। अंध श्रद्धा या अंध विश्वासों को सम्यग दर्शन अथवा धर्म कहने वालों को उन्होंने सम्यग् दृष्टि की कोटि से बाहर रखता है । मात्र श्रद्धा होना कुछ और वस्तु है तथा जिज्ञासा पूर्वक किसी तत्व को ग्रहण करना कुछ और बात है। जब रुचि की वृद्धि होती है तो श्रद्धा पुष्ट होती है तथा अनेक कुतर्कों से सिद्ध, असत्य तत्वों की अंधश्रद्धा समाप्त हो जाती है। जिसं को रुचि होती है, वह मन में उत्पन्न सिद्धान्त की शंकाओं को मन में रख कर समाधान के लिए अचेष्ट न रहेगा । वह समाधान तथा गुरुगम के द्वारा शंकाओं का विवेचन करने का प्रयत्न करेगा। इस प्रकार उस का सम्यग् दर्शन निर्मल होगा।
यथा भोजनादि की रुचि न हो, तो भोजन ग्रहण करने के लिए प्रवृति नहीं होती। तथैव यदि सम्यक तत्त्व के ज्ञान में रुचि न हो, तो व्यक्ति उस ज्ञान की प्राप्ति तथा उस की श्रद्धा के प्रति भी उत्साहित नहीं हो सकता । श्रुत ज्ञानी अंगारमर्दक
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