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योग शास्त्र
जीव ! तवैव दोषोऽयं, निज प्रास्कृत कर्मणः।
नाकृतं भुज्यते कर्म, कृतं भुज्यत एव हि ॥ अर्थात् -हे जीव ! यह रोगादि तेरे ही पूर्व जन्म में कृत कर्मों का फल है । 'अकृत कर्म' का भोग (विपाक) नहीं होता तथा कृत को भोगना ही पड़ता है।
यह आत्मज्ञान ही मानव का सर्वोत्कृष्ट निर्जरा पथ है। जहां निर्जरा ही निर्जरा है, बन्ध का कोई अस्तित्व नहीं। __ उपाध्याय श्री यशोविजय जी म० ज्ञान को ही तप के नाम से अभिहित करते हैं
ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः कर्मणां तापनात्तपः ॥ ज्ञान से कर्मों का क्षय होता है । मन एकाग्र होता है । मन के अशुभ विचारों का नाश होता है । विशेषतः मोहनीय कर्म दुर्बल होता है। ज्ञानावरणीय कर्म क्षयोपशम होता है।
ज्ञान पंचमी के चैत्य वदन में भी ज्ञान को क्रिया से उत्कृष्ट बताया गया है
किया देश आराधक कही, सर्व आराधक ज्ञान । क्रिया से देश (अल्प-आंशिक) आराधनां होती है तथा ज्ञान से सर्व आराधना होती है। अर्थात् क्रियाओं के द्वारा सामान्य साधना होती है, जब कि ज्ञान के द्वारा विशेष । परन्तु यह ज्ञान बातों का नहीं, अनुभव का होना चाहिए।
एक बार एक व्यक्ति मेरे पास आया तथा कहने लगा, "महाराज! आत्म साक्षात्कार कैसा होता है ?" मैंने विचार किया, “यह व्यक्ति आत्मा के साक्षात्कार की बातें करता है, परन्तु क्या इस के मन में आत्मा की प्राप्ति की तड़प है ?"वस्तुतः पहले आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए, बाद में ही उसकी प्राप्ति की बात हो सकती है । मैंने उस से पूछा, "क्या तुम आत्मा के
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