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ज्ञान : श्रेयस् का योग उन की चिंतन विधि न जाने किस 'फरिश्तों को जन्नत' से उधार ली हुई होती है । वे कहते हैं, कि इस जन्म के दुःखों का स्वागत है, साथ में अन्य जन्मों के दुःखों का भी स्वागत है । जो दुःख परभव में आने वाले हैं, वे इसी जन्म में आ जाएं। क्योंकि इस जन्म में यदि दुःख आता है, तो वह ज्ञान दृष्टि होने के कारण निर्जरित हो जाता है । दुःख विपाक के समय स्वकृत कर्मों पर विचार दृढ़ हो जाता है । दुःख भोगते समय परिणाम क्लेशमय नहीं होते। उस समय किसी पर द्वेष या घृणा नहीं होती । 'सर्वभूतेष मैत्री' की भावना होती है । प्रतिशोध की अग्नि नहीं होती । अतः नवीन कर्मों का बन्धन नहीं होता ।
वर्तमान में तो ज्ञान दृष्टि है, अतः कर्मों के उदय को सहनशीलता से भोग लिया जाता है । यदि यह ज्ञान - दृष्टि परभव में न मिली तो ? कर्म का तो उदय होगा ही । सहनशीलता न होने से कर्म के विपाक से व्यक्ति बच न जाएगा । इस के विपरीत वह कर्मों को भोगते हुए राग, द्वेष, ईर्ष्या, घृणा आदि के भाव से नवीन कर्मों का संचय करेगा ।
विचारवान् तो सोचेगा, कि आज मेरे पास ज्ञान शक्ति है अतः मैं कर्म फल को कर्म बन्ध के बिना भोग रहा हूं । जब आगामी भव में मेरे पास में यह ज्ञान-विवेक का बल न होगा, तब यह कर्म फल कैसे भोगा जाएगा ? तब द्वेषादि से कर्म बन्धन होगा । परिणामतः कर्मों की तथा जन्म-मरण की श्रृंखला प्रारम्भ हो जाएगी ।
यह समस्त विचार सरणि क्या अज्ञानी के हृदय में प्रादुर्भूत हो सकती है ? "नहीं" । अतः ज्ञान ही पूर्णतः कर्मक्षय में कारण है । यदि साधक में ज्ञान दृष्टि विकसित न हो, तो वह साधना के पथ पर साहस पूर्वक बाधाओं संघर्षों का सामना करते हुए आगे नहीं बढ़ सकता । श्री हेमचन्द्राचार्य के अनुसार
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