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ज्ञान : श्रेयस् का योग विषय में कुछ जानते हो?" उस ने उत्तर दिया, "नहीं।" मैंने उस से कहा, "साक्षात्कार तो बाद में होगा, पहले आत्मा को जान आओ । आत्मा का ज्ञान किए बिना उस का साक्षात्कार तो हो ही न सकेगा)" और वह व्यक्ति मेरे उत्तर से सन्तुष्ट हो कर चला गया।
आत्म ज्ञान प्राप्त हो जाने के पश्चात् प्राणी उस के अनुभव के लिए साधना करता है तथा एक दिन मुक्ति को भी प्राप्त कर लेता है।
सम्पूर्ण ज्ञान का मुख्य केन्द्र 'नवतत्व' है । नवतत्व का कुछ वर्णन करना यहां अभिप्रेत है।
जीव, अजीव, पूण्य, पाप, आश्रव संवर, बन्ध, निर्जरा तथा मोक्ष-ये नवतत्व हैं । इन का क्रमशः विवेचन निम्न रूप से है ।
१. जीव :-यह दो प्रकार का है : संसारी तथा मुक्त । संसारी के २ भाग हैं, त्रस तथा स्थावर। (इन के भेद-प्रभेदों के लिए जैन प्रश्नमाला देखें)
संसारी जीव कर्मों से युक्त होता है, वह अनादि संसार में भ्रमण करता है। जब वह सद्गुरु के योग से स्वयं को 'आत्मा' रूप जान लेता है, तो वह कर्मों का नाश करने में समर्थ हो जाता है। आत्माएं अनन्त हैं। प्रत्येक आत्मा अनादि है, वह किसी के द्वारा निर्मित नहीं है।
मात्र आत्मा के कर्मों के कारण इस के शरीरों में परिवर्तन होता रहता है। कभी वह घोड़ा आदि पशु बन जाता है, तो कभी नारकी। कभी वह मनुष्य बन जाता है, तो कभी देव । कभी वह स्वस्थ होता है, तो कभी रोगी। ये सब कर्म के ही विपाक हैं। आत्मा के पर्याय हैं । पर्याय कैसा भी हो सकता है, परन्तु मूलतत्व कभी परिवर्तित नहीं होता। मिट्टी से घड़ा चूल्हा आदि बनता है
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