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ज्ञान : श्रेयस का योग विष के द्वारा अमरत्व की प्राप्ति हो सकती है ? ऐसी विष क्रियाएं प्राणी ने हजारों बार की होंगी, परन्तु परिणाम शून्य। ..
आणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, ननं न चेतसि मया विघतोऽसि भक्त्या।
जातोस्मि तेन जनबांधव ! दुःखपात्रं, - यस्मात् क्रियाः प्रतिफलंति न भाव शून्याः ॥ अर्थात हे प्रभो, मैंने पूर्व भवों में आप की वाणी को सुना। आप को देखा भी, आप की पूजा-अर्चा भी की, किन्तु मैंने आपको भक्ति से चित्त में नहीं बिठाया । अतः हे जन बन्ध! मैं सदैव दुःख का पात्र बना रहा, क्योंकि भाव-शून्य क्रियाएं फल प्रदान नहीं करतीं।
वस्तुतः यह फलप्रदायी भाव, ज्ञान से ही उत्पन्न होता है । ज्ञान, भाव का साधन है। ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् मानव स्वविवेक से शुभ तथा शुद्ध की ओर बढ़ सकता है ! जैन दर्शन में कर्म ग्रन्थों का ज्ञान भी इसी लिए है, कि मानव कर्मों से भयभीत रहे, सत्कर्म करे तथा ज्ञान एवं भाव के द्वारा जीवन का उद्धार करे।
वर्तमान में जो व्यक्ति प्रतिक्रमण करते हैं, क्या वे ज्ञान युक्त क्रिया करते हैं ? वे प्रतिक्रमण में तोता रटन करते हैं । जैसे तोता 'राम-रामकरता रहता है । परन्तु राम-राम कहने मात्र से उस को कोई लाभ नहीं होता। इसी प्रकार हम भी प्रतिक्रमण में सूत्रों का उच्चारण करते हुए उस के अर्थ का चिंतन करें, तो प्रतिक्रमण विशेष सार्थक हो सकता है। अन्यथा प्रतिक्रमण के भावों के बिना यह प्रतिक्रमण भी कैसा होगा ? कितने प्रतिशत फलदायी होगा?
एक समस्या और भी है । साधु-साध्वीगण, तो प्रायः संस्कृतप्राकृत का अभ्यास करते हैं, वे प्रतिक्रमण के अर्थों को जानते भी
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