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योग शास्त्र
लेना है | अब पढ़ने या व्याख्यान सुनने से क्या लाभ?
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मैंने पूछा 'जिस ने तुम्हें गुरु मन्त्र दिया है, क्या उन्होंने
?
उत्तर था, "नहीं" ।
बनाया ? जो ज्ञान न सुन रखा है, कि
तुम्हें कुछ ज्ञान देने का भी प्रयास किया हैं तो फिर उसने तुम्हें अपना शिष्य क्यों दे, वह गुरु कैसा ? उस ने उत्तर दिया, मैंने " गुरु बिना गत (गति) नहीं, शाह बिना पतं ( प्रतिष्ठा ) नहीं " अर्थात् गुरु के बिना गति नहीं होती। अतः एव मैंने एक गुरु बना लिया है । उन से मुझे कुछ मिले या न मिले – वे मुझे सद्गति में तो पहुंचा ही देंगे ।
मैंने कहा, ज्ञान प्राप्त करोगी, तभी गुरु बनाना सार्थक है, अन्यथा सैंकड़ों गुरु बनाने से भी कुछ न होगा ।
जिस के पास ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि हो उसे अवश्य ही कहीं न कहीं से ज्ञान भी प्राप्त हो जाएगा और वैसा वातावरण भी मिल जाएगा ।
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ज्ञान तथा क्रिया- इन दोनों में ज्ञान अधिक महत्वपूर्ण है । यदि आप के पास ज्ञान है, तो क्रिया भी सार्थक है । यदि ज्ञान नहीं, तो क्रिया भी विशेष फल न दे पाएगी। आचार्य शयम्भव ने कहा है
पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठई सव्व संजए । अन्नाणी कि काही कि वा नाहीई छेय पावगं ॥
प्रथम ज्ञान है, बाद में क्रिया । जो अज्ञानी है, वह क्या करेगा ? तथा पाप-पुण्य को क्या जानेगा ? जीवादि तत्वों के ज्ञान के अभाव में वह दया आदि का पालन क्या करेगा ?
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'जो क्रिया, ज्ञान सहित हो जाती है - वह अमृत क्रिया बन जाती है । उस विवेकपूर्ण क्रिया से मोक्ष की प्राप्ति होती है । जब कि ज्ञान विवेक रहित क्रिया से क्या प्राप्त होगा ? वह क्रिया तो विष क्रिया है, उस से कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता । क्या
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