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ज्ञान : श्रेयस् का योग व्यवहार में तो आपके सैकड़ों गुरु होंगे, परन्तु ज्ञान का प्रकाश जिस से प्राप्त होता है - ऐसे गुरु कितने ?
वस्तुतः गुरु भी कुछ नहीं कर सकता । यदि शिष्य के मन में ज्ञान के प्रति तड़प न हो। जिस के मन में तड़प होती है, वह जिज्ञासा की दृष्टि से पूछता रहता हैं। पूछता नर पंडिता ।
परीक्षा की बुद्धि से पूछने वाले भी इस संसार में बहुत व्यक्ति हैं । परन्तु परीक्षा से पूछने वालों की ही जब परीक्षा हो जाती है, तो उस वराक का मुख मंडल म्लान हो जाता है। ज्ञान प्राप्ति में दूसरों की परीक्षा कैसी ?
आप किसी संदेह के उत्पन्न होने पर किसी विद्वान् या साधु के पास पहुंचेंगे, तो शंका का समाधान हो जाएंगा। परन्तु पूछने में छोटा बनना पड़ता है । 'मैं प्रतिष्ठित हूं - - पूछूं क्यों ?' यह भाव व्यक्ति को, ज्ञान के क्षेत्र में सीमित कर देता है ।
पृच्छा करने से ही 'कुछ' प्राप्त होता है । मात्र गुरु बना लेने से कुछ नहीं ।
गु शब्द स्त्वंधकारः स्याद्, रू शब्दः प्रतिरोधकः । अंधकार निरोधित्वाद, गुरु इत्यभिधीयते ॥
यदि आपने किसी को गुरु बनाया है, तो उस से अपना अज्ञान-अंधकार दूर कर लेना, अन्यथा गुरु करना व्यर्थ होगा ।
एक बार एक शिक्षित महिला दर्शनार्थ आई । वार्तालाप से ज्ञात हुआ, कि वह स्थानकवासी सम्प्रदाय से है तथा एक साधु को अपना गुरु भी बना चुकी है । मैंने उस से पूछ लिया, बहिन ! क्या तुम व्याख्यान सुनने जाती हो ? घर में बैठ कर कुछ पढ़ती हो ?
उस नें उत्तर दिया- " मैंने एक साधु जी को गुरु बना लिया है, अतः अब पढ़ने-पढ़ाने की आवश्यकता नहीं है । अब जो भी कोई शंका या समस्या होगी, अपने गुरु जी से समाधान करा
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