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अक्रमभावी है। और शेष मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ये चार क्रम - भावि हैं 35 आप्त ज्ञान अक्रमभावि है और हम छद्मस्थों का प्रमाण ज्ञान क्रमभावी है।
विभिन्न दर्शनों द्वारा मान्य प्रत्यक्ष - परोक्ष लक्षण
तर दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष का लक्षण अनेक प्रकार से किया है। न्याय वैशेषिक दर्शन इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान को प्रत्यक्ष कहता है । सांख्य दर्शन भी श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्ति को अथवा घट पट आदि पदार्थों में चक्षु, श्रोत्रादि इन्द्रियों के सन्निकर्ष से उत्पन्न बुद्धि के व्यापार को प्रत्यक्ष मानता है। 7
मीमांसा दर्शन इन्द्रियों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होने पर उत्पन्न होने वाली बुद्धको प्रत्यक्ष मानता है ।
बौद्ध दर्शन के आचार्य वसुबन्धु, दिङ्नाग तथा धर्मकीर्ति आदि ने नाम, जाति आदि कल्पना से रहित निर्विकल्पक तथा भ्रान्तिरहित ज्ञान को प्रत्यक्ष माना 18 प्रायः सभी बौद्ध दार्शनिक विद्वानों ने निर्विकल्पक ज्ञान को ही प्रत्यक्ष स्वीकार किया है।
न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद किए गये हैं - एक सविकल्पक और दूसरा निर्विकल्पक । जिसमें वस्तु के स्वरूप की प्रतीति के साथ उसके नाम, जाति आदि का भी भान होता है उसको सविकल्पक कहते हैं । जैसे घट, पट आदि की प्रतीति के साथ उनके नाम, जाति आदि का भी भान (ज्ञान) होता है । साधारणतः व्यवहार में आने वाले सभी ज्ञान सविकल्पक के उदाहरण हैं। परन्तु जहाँ केवल वस्तु का स्वरूप प्रतीत होता है उसके नाम, जाति आदि की प्रतीति नहीं होती है अर्थात् जिसमें विशेष्य-विशेषण भाव आदि की प्रतीति न हो, मात्र सामान्यावलोकन हो उसको निर्विकल्पक कहते हैं । इसी को 'आलोचन मात्र' भी कहा गया है ।"
ज्ञान की उत्पत्ति प्रक्रिया में सर्वप्रथम इस प्रकार का वस्तुमात्रावगाहि ज्ञान उत्पन्न होता हैं इसको बौद्ध और जैनदर्शन दोनों ने स्वीकार किया है। जैनदर्शन, जो निर्विकल्पक को प्रत्यक्ष नहीं मानता है, वह भी इस प्रकार के ज्ञान का अस्तित्व तो स्वीकार करता है और इसको 'दर्शन' नाम से व्यवहृत करता है और इस 'दर्शन' को परोक्ष भी मानता है, क्योंकि उसने परोक्ष 'मतिज्ञान' को भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है, जिसका स्वरूप आगे कहा जाएगा।
जैनदर्शन में आत्मा के चैतन्य गुण से सम्बन्ध रखने वाले परिणाम - विशेष को उपयोग कहा गया है। उपयोग जीव का तद्भूत लक्षण है ।12 यह उपयोग दो प्रकार का माना गया है - ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ज्ञानोपयोग पदार्थ को विकल्प सहित जानता है और दर्शनोपयोग या दर्शन पदार्थ को विकल्प रहित जानता है।
88 :: जैनदर्शन में नयवाद
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