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तथा विशेष गुणों में से जीव और पुद्गल द्रव्य में छ:-छ: और धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल द्रव्य में तीन-तीन विशेष गुण होते हैं।163 पर्याय : स्वरूप और भेद
व्युत्पत्ति-'पर्याय' शब्द 'परि' उपसर्ग पूर्वक 'इण्' धातु से 'ण' प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है। 'परि' उपसर्ग का अर्थ है-'कालकृत भेद' और 'इण' धातु का अर्थ हैं 'गमन या प्राप्ति'। अर्थात्-जो कालकृत भेद को प्राप्त होती है उसे पर्याय कहते हैं।64 अथवा जो सब ओर से भेद को प्राप्त करे उसे पर्याय कहते है165 अथवा जो स्वभाव-विभाव रूप से पूरी तरह द्रव्य को प्राप्त होती हैं, वे पर्याय हैं166 या जो स्वभाव-विभाव रूप से परिणमन करती है, वह पर्याय है।167
स्वरूप-जैनदर्शन में जैनाचार्यों ने पर्याय का स्वरूप बतलाते हुए उसे क्रमवर्ती, अनित्य, व्यतिरेकी, उत्पाद-व्यय रूप और कथंचित् ध्रौव्यात्मक कहा है।68 क्रमवर्ती का अर्थ है कि पर्याय एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी इस क्रम से होती हैं। जैसे पिण्ड, कोश, कुशूल और घट ये पर्याय मिट्टी में युगपत् नहीं पाई जातीं, किन्तु क्रम से होती हैं। इसलिए वे क्रमवर्ती कहलाती हैं। तात्पर्य यह है कि प्रतिसमय एक पर्याय का स्थान दूसरी पर्याय लेती रहती है। यह नहीं हो सकता कि एक पर्याय के रहते हुए दूसरी पर्याय हो जाए इसलिए स्वभावतः पर्यायों में क्रमं घटित होता है और इसीलिए क्रम से होने वाली वस्तु की विशेषता या अवस्था को पर्याय कहा है। जैसे जीव की नर, नारकादि पर्याय या अवस्थाएँ
और पुद्गल परमाणुओं की व्यणुक आदि अवस्थाएँ या कर्मरूप पर्याय। पर्याय का वास्तविक अर्थ वस्तु का अंश है। अंश के दो भेद हैं-एक अन्वयी और दूसरा व्यतिरेकी। अन्वयी अंश को गुण और व्यतिरेकी अंश को पर्याय कहते हैं। इसीलिए जैनदर्शन में सर्वत्र गुणों को अन्वयी, नित्य, ध्रौव्यात्मक और पर्यायों को व्यतिरेकी, अनित्य, उत्पाद-व्ययशील कहा गया है। इसका यही मतलब है कि जिनसे धारा में एक रूपता बनी रहती है वे गुण कहलाते हैं और जिनसे उसमें भेद प्रतीत होता है वे पर्याय कहलाती हैं। इसलिए व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय एकार्थक हैं।
जैसा कि ऊपर कहा गया है ये गुण और पर्याय मिलकर ही द्रव्य कहलाते हैं या गुण, पर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है। गुण और पर्यायों के अतिरिक्त द्रव्य कोई पृथक् वस्तु नहीं है।
-भेद-पर्याय के दो भेद किये गये हैं-द्रव्य पर्याय और गुण-पर्याय। अनेक द्रव्यों में ऐक्य का बोध कराने वाली पर्याय को द्रव्य-पर्याय कहते हैं। इसके भी दो भेद हैं-सजातीय और विजातीय। अनेक पुद्गलों के मेल से जो घट-पट आदि
नयवाद की पृष्ठभूमि :: 67
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