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लोकाकाश के एक प्रदेश में भी अनन्त प्रदेश वाला पुद्गल स्कन्ध स्थान पा लेता है । इसके सिवाय समस्त द्रव्यों में एक दूसरे को अवगाहन देने की सामर्थ्य है और वह सामर्थ्य व्याघात से रहित है, जिससे अल्पक्षेत्र में ही समस्त द्रव्यों के रहने में कोई बाधा नहीं होती ।
जैसा कि ऊपर कहा गया है पुद्गल द्रव्य के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं, किन्तु पुद्गल परमाणु के दो आदि प्रदेश नहीं होते हैं। 130 परमाणु एक प्रदेशी ही होता है। पुद्गल के सबसे छोटे टुकड़े या हिस्से का नाम परमाणुहै। परमाणु का और विभाग नहीं किया जा सकता, अतः उसके भेद या प्रदेश नहीं हो सकते । परमाणु से छोटा और आकाश से बड़ा कोई पदार्थ नहीं पाया जाता, इसलिए प्रदेश - भेद की कल्पना सम्भव न होने से उसे अप्रदेशी माना है ।
यहाँ यह भी विचारणीय है कि प्रदेश और परमाणु में क्या अन्तर है ? जबकि दोनों एक स्वरूप से प्रतीत होते हैं ?
वैसे देखा जाय तो कोई अन्तर नहीं है, केवल व्यवहार का अन्तर है । जो विभक्त है या बँध कर बिछुड़ सकता है, वहाँ 'परमाणु' या 'अणु' व्यवहार होता है और जहाँ विभाग तो नहीं है और विभाग हो भी नहीं सकता, केवल बुद्धि से विभाग को कल्पना की जाती हैं, वहाँ प्रदेश व्यवहार होता है । उदाहरणार्थ पुद्गल द्रव्य के परमाणु अलग-अलग हैं या अलग हो सकते हैं, इसलिए पुद्गल द्रव्य में मुख्यतया अणु व्यवहार देखा जाता है, यही बात काल द्रव्य की है, उसके अणु भी अलग-अलग हैं, इसलिए वहाँ भी अणु व्यवहार होता है, किन्तु शेष द्रव्यों में प्रदेश न तो विभक्त हैं और न ही विभाग किया जा सकता है, केवल बुद्धि से विभाग की कल्पना की जाती है, इसलिए वहाँ प्रदेश व्यवहार होता है।
इन जीवादि द्रव्यों का अवगाह लोकाकाश में है । 31 लोकाकाश आधार और जीवादि द्रव्य आधे हैं। लेकिन लोकाकाश का अन्य कोई आधार नहीं है, वह अपने ही आधार पर (स्वप्रतिष्ठ) है; क्योंकि आकाश से अधिक परिमाण वाला दूसरा कोई द्रव्य नहीं है, जो आकाश का आधार हो सके। अतः आकाश किसी का आधेय नहीं हो सकता । आकाश भी व्यवहार नय की अपेक्षा धर्मादि समस्त द्रव्यों का आधार माना गया है। निश्चय दृष्टि से तो सब द्रव्य स्वप्रतिष्ठ हैं ।
धर्म और अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाश में तिल में तेल की तरह व्याप्त हैं।132 इसमें अवगाहन शक्ति होने से परस्पर में व्याघात नहीं होता है । वास्तव में लोक अलोक का विभाग इन दोनों द्रव्यों के कारण ही है। जितने आकाश में ये
58 :: जैनदर्शन में नयवाद
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