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________________ जाता है। 124 ऊपर 'प्रदेश' शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है, अत: उसके विषय में स्पष्ट रूप से जान लेना आवश्यक है आकाश के जितने क्षेत्र में पुद्गल का सबसे छोटा टुकड़ा (परमाणु) रह सके उतने क्षेत्र को ‘प्रदेश' कहते हैं । इस प्रदेश में धर्म और अधर्म द्रव्य के एक-एक प्रदेश, काल का अणु और पुद्गल के संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त अणु भी लोहे में आग के समान एकक्षेत्रावगाही होकर समा जाते हैं। इसीलिए 'प्रदेश' को सब द्रव्यों के अणुओं को स्थान देने योग्य कहा है। 125 इस प्रकार के प्रदेश उक्त पाँचों द्रव्यों में पृथक्-पृथक् रूप से अनेकों पाये जाते हैं । इसीलिए ये बहुप्रदेशी हैं और बहुप्रदेशी होने से ‘अस्तिकाय' कहलाते हैं। इनका बहुप्रदेशत्व इस प्रकार हैलोकाकाश में यदि क्रम-वार एक-एक करके परमाणुओं को बराबर-बराबर सटाकर रखा जावे तो असंख्यात परमाणु समा सकते हैं । अतः लोकाकाश और उसमें व्याप्त धर्म तथा अधर्म द्रव्य असंख्यात प्रदेशी कहे जाते हैं । इसी प्रकार शरीर परिमाण एक जीवद्रव्य भी यदि शरीर से बाहर होकर फैले तो समस्त लोकाकाश में फैल सकता है- व्याप्त हो सकता है। लोकाकाश में असंख्यात प्रदेश होते हैं, इससे जीव द्रव्य भी असंख्यात प्रदेशी है। धर्म तथा अधर्म भी समस्त लोकाकाश में तिल में तेल की तरह व्याप्त हैं इससे ये भी असंख्यात प्रदेशी हैं।126 आकाश के अनन्त प्रदेश हैं । 127 क्योंकि वह लोकाकाश के बाहर भी है और उसकी कोई सीमा नहीं है । परन्तु लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश हैं । पुद्गल द्रव्य के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं।28 वैसे पुद्गल का परमाणु तो एक ही प्रदेशी है, किन्तु उन परमाणुओं के समूह से जो स्कन्ध बन जाते हैं, वे संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी होते हैं, इस दृष्टि से पुद्गल भी बहुप्रदेशी है । इस प्रकार बहुप्रदेशी होने से पाँचों द्रव्य ‘अस्तिकाय' कहे जाते हैं, किन्तु काल द्रव्य के अणु एक-एक अलग-अलग रहते हैं, वे मिलकर स्कन्ध रूप नहीं होते, इस कारण वह एकप्रदेशी है, कायवान् (अस्तिकाय) नहीं है।129 अब यहाँ यह प्रश्न हो सकता है - जब लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश उसमें अनन्त और अनन्तानन्त प्रदेश वाले पुद्गल द्रव्य तथा शेष द्रव्य किस तरह रह सकते हैं ? इसका समाधान है कि पुद्गल परमाणुओं में दो तरह का परिणमन होता है; एक सूक्ष्म परिणमन और दूसरा स्थूल । जब उनमें सूक्ष्म परिणमन होता है तब Jain Education International नयवाद की पृष्ठभूमि :: 57 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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