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________________ (4) परत्वापरत्व - छोटे और बड़े के व्यवहार को परत्वापरत्व कहते हैं । 25 वर्ष के मनुष्य को बड़ा और 20 वर्ष के मनुष्य को उसकी अपेक्षा से छोटा कहते I इस प्रकार ये वर्तनादि कालद्रव्य के उपकार या कार्य हैं, असाधारण लक्षण हैं, क्योंकि यदि कालद्रव्य न हो तो द्रव्यों का वर्तन ही नहीं हो सकता और न उनका परिणमन हो सकता, न गति हो सकती और न परत्वापरत्व का व्यवहार ही बन सकता है। ये सब काल द्रव्य की सहायता से होते हैं। इसलिए इन्हें देखकर ही अमूर्तिक कालद्रव्य का अस्तित्व सिद्ध होता है । इस कालद्रव्य को न्याय-वैशेषिक आदि दर्शनों ने भी स्वीकार किया है। उनके अनुसार जैसे आकाश प्रत्यक्ष-गोचर नहीं है वैसे ही काल भी किसी के प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, किन्तु एक व्यावहारिक पदार्थ अवश्य है। कालद्रव्य का निरूपण करते हुए वे कहते हैं कि अतीत, अनागत एवं वर्तमान आदि व्यवहार का हेतु काल है और वह भी आकाश के समान ही एक नित्य तथा व्यापक है। 18 नया पुराना, ज्येष्ठ-कनिष्ठ, युगपत्-अयुगपत्, विलम्बता - शीघ्रता, अब- जब, कब-तब आदि व्यवहार काल के बिना नहीं हो सकते। वह उपाधि भेद से क्षण - मुहूर्त, घड़ी-घंटा, रात-दिन, पक्ष- मास आदि अनेक रूप से व्यवहार में आता है । सांख्यदर्शन काल नाम का कोई तत्त्व नहीं मानता, किन्तु योगदर्शन योगसूत्र व्यासभाष्य में 'क्षणस्तु वस्तु पतितः' कहकर क्षणरूप काल की सत्ता मानता है। मुहूर्त, अहोरात्र रूप काल को केवल विकल्प मात्र मानता है। उसके अनुसार क्षण रूप काल ही वास्तविक वस्तु है । इसी को काल - तत्त्ववेत्ता योगिजन काल नाम से पुकारते हैं। किन्तु उक्त सभी दर्शनों की मान्यतायें केवल व्यवहार काल तक ही सीमित हैं। वे जैन दर्शन मान्य केवल व्यवहार कालं को ही कालद्रव्य मानते हैं। निश्चयकाल या कालाणुरूप वस्तु को वे नहीं जानते । निश्चय कालद्रव्य की मान्यता तो केवल जैनदर्शन में ही है। उक्त जीवादि सभी द्रव्य नित्य अवस्थित और अरूपी हैं। 19 ये द्रव्य कभी भी अपने स्वरूप से नष्ट नहीं होते हैं, इसलिए नित्य हैं। इनकी संख्या सदा 'छः ' ही रहती है, ये कभी भी 'छः ' इस संख्या का उल्लंघन नहीं करते अथवा ये कभी भी अपने-अपने प्रदेशों को नहीं छोड़ते हैं इसलिए अवस्थित हैं। इन द्रव्यों में नित्यत्व और अवस्थितत्व द्रव्यनय की अपेक्षा से है । इनमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श 54 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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