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________________ कहते हैं।13 यद्यपि सभी पदार्थ अपने-अपने स्वभाव के अनुसार वर्त रहे हैं और सदा वर्तते हैं, किन्तु इनको वर्ताने वाला काल द्रव्य है।14 काल की यह प्रयोजक शक्ति ही वर्तना है।115 'वर्तना' शब्द णिजन्त में वृति' धातु से कर्म या भाव में युट् प्रत्यय करने पर स्त्रीलिंग में बनता है। इसकी व्युत्पत्ति वर्त्यते' या 'वर्तनमात्रम्' है। जिस प्रकार धर्मादिक द्रव्य गति आदि में उदासीन कारण माने गये हैं। उसी प्रकार कालद्रव्य भी द्रव्यों की वर्तना में उदासीन प्रयोजक है। पदार्थों के वर्तन में यह बाह्य निमित्त कारण है। यदि इसको कारण न माना जाएगा तो बड़ी गड़बड़ उपस्थित हो जाएगी, हरएक पदार्थ के क्रम-भावी परिणमन युगपत् उपस्थित होने लगेंगे। निष्कर्ष यह है कि जगत् के जितने पदार्थ हैं वे स्वयं वर्तनशील हैं। परिवर्तित होते रहना उनका स्वभाव है। ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है जो उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक न हो। इसप्रकार यद्यपि प्रत्येक वस्तु की वर्तनशीलता उसके स्वभावगत है पर यह कार्य बिना निमित्त के नहीं होता, इसलिए इसके निमित्त रूप से कालद्रव्य को स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि 'वर्तना' कालद्रव्य का लक्षण माना गया है। अतः कालद्रव्य के निमित्त से होने वाले परिवर्तन का नाम वर्तना है। वर्तना से ही कालद्रव्य का अस्तित्व सिद्ध होता है। इस विषय में एक लोकप्रसिद्ध उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है-भात बनाने के लिए चावलों को पानी युक्त बटलोई में डाल दीजिए और उसे चूल्हे की अग्नि पर रखने के कुछ समय बाद भात (चावल) बनकर तैयार हो जाता है। चावलों से जो भात बना वह एक समय में और एक साथ ही नहीं बना, किन्तु चावलों में प्रत्येक समय सूक्ष्म परिणमन होतेहोते अन्त में स्थूल परिणमन दृष्टिगोचर होता है। यदि प्रतिसमय सूक्ष्म परिणमन .. न होता तो स्थूल परिणमन भी नहीं हो सकता था। अतः चावलों में जो प्रतिसमय परिवर्तन हुआ वह काल रूप बाह्य कारण की अपेक्षा से ही हुआ है। इसी प्रकार सब पदार्थों में परिणमन कालद्रव्य के कारण ही होता है। काल द्रव्य निष्क्रिय होकर भी निमित्त मात्र से सब द्रव्यों की वर्तना में हेतु होता है। ... (2) परिणाम-एक पर्याय की निवृत्ति होकर दूसरे पर्याय की उत्पत्ति होने का नाम परिणाम है। जीव का परिणाम ज्ञानादि है, पुद्गल का परिणाम वर्णादि है, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य का परिणाम अगुरुलघु गुणों की वृद्धि और हानि है। . (3) क्रिया-हलन-चलन रूप परिणति को क्रिया कहते हैं। क्रिया के दो भेद हैं-प्रायोगिकी और वैससिकी।” हल, मूसल, शकट आदि में जो क्रिया होती है वह दूसरों के द्वारा होती है। इसको प्रायोगिकी क्रिया कहते हैं। मेघ आदि में क्रिया स्वभाव से होती है, इसे वैससिकी क्रिया कहते हैं। नयवाद की पृष्ठभूमि :: 53 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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