SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होने से परमाणु की उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए यह भी कथंचित् कार्य ठहरता है, तथापि परमाणु यह पुद्गल की स्वाभाविक दशा है, इसलिए वस्तुतः यह किसी का कार्य नहीं है, यह नित्य है, एक रस, गन्ध, वर्ण वाला है। यह इतना सूक्ष्म है कि इसे इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता तथापि कार्य द्वारा उसके अस्तित्व का अनुमान किया जा सकता है। जब तक वह परमाणु स्कन्धगत है, प्रदेश कहलाता है और अपनी पृथक् अवस्था में परमाणु कहलाता है। यह परमाणु पुद्गल द्रव्य का अविभाज्य, अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य तथा अग्राह्य अंश है। किसी भी उपाय, उपचार या उपाधि से उसका भाग नहीं हो सकता। वज्रपटल से भी उसका विभाग नहीं हो सकता, किसी तीक्ष्ण-अति तीक्ष्ण शस्त्र से भी उसका भाग नहीं हो सकता। वह तलवार की या इससे भी तीक्ष्ण धार वाले शस्त्र की धार पर रह सकता है। तलवार या छुरे की तीक्ष्ण धार पर रहे हुए परमाणु का छेदन-भेदन नहीं हो सकता। वह अग्नि में प्रवेश कर जलता नहीं, पुष्कर, संवर्त, महामेघ में भी प्रवेश कर आर्द्र नहीं होता, उदक-बिन्दु का आश्रय लेकर विलुप्त नहीं होता। परमाणु की न लम्बाई है, न चौड़ाई है, न गहराई है, वह तो इकाई रूप है। परमाणु के भेद-परमाणु चार प्रकार का है : (1) द्रव्यपरमाणु-पुद्गलपरमाणु । (2) क्षेत्रपरमाणु-आकाश परमाणु। (3) कालपरमाणु-समय। (4) भावपरमाणु-गुण। भाव परमाणु चार प्रकार का बतलाया गया है-1.वर्ण-गुण, 2.गन्ध-गुण, 3.रस-गुण, 4. स्पर्श-गुण। इनके उपभेद भी 16 हैं। इस प्रकार जैन दर्शन में प्रतिपादित परमाणु वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्शवान् है। ऐसा होना पुद्गल का स्वभाव है। परमाणु में गति व क्रिया -परमाणु जड़ होता हुआ भी गतिशील है। उसकी गति प्रेरित भी होती है और अप्रेरित भी। वह सर्वदा गति करता हो, ऐसी बात नहीं है, कभी करता है, कभी नहीं। वह क्रियावान् भी है। उसकी क्रियाएँ आकस्मिक होती हैं. और अनेक प्रकार की होती हैं। वह कभी कम्पन भी करता है और स्थिर भी रहता है। ... परमाणु अपनी उत्कृष्ट गति से एक समय में चौदहराजू लोक से पूर्व चरमान्त से पश्चिम चरमान्त, उत्तर चरमान्त से दक्षिण चरमान्त और अधोचरमान्त से ऊर्ध्व चरमान्त तक पहुँच सकता है। 'समय' एक जैन पारिभाषिक शब्द है। परमाणु की नयवाद की पृष्ठभूमि :: 33 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy