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तरतम भाव से संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण, पुद्गल के गुण हैं तथा कोमल, कठोर आदि उन गुणों की पर्याय हैं। ये ये स्पर्शादिगुण पुद्गल में किसी-न-किसी रूप में सदा पाये जाते हैं, इसलिए पुद्गल ये स्वतत्त्व हैं।
पुद्गल के भेद - मूलत: पुद्गल के दो भेद हैं- अणु और स्कन्ध पुद्गलों में संयुक्त और वियुक्त, पूरण और गलन, मिलने और बिछुड़ने की क्षमता स्पष्ट दिखाई देती है, इसी से वह अणु और स्कन्ध, इन दो भागों में बँटा हुआ है। कितने ही प्रकार के पुद्गल क्यों न हों वे सब इन दो भागों में समा जाते हैं ।
परमाणु - जैनदर्शन में परमाणु के स्वरूप को विभिन्न प्रकार से स्पष्ट किया गया है। स्कन्ध का वह अन्तिम भाग जो विभाजित हो ही नहीं सकता, परमाणु है । वह परमाणु नित्य है, शब्दरूप नहीं है। एकप्रदेशी है, अविभागी है और मूर्तिक है। वह अत्यन्त सूक्ष्म होने से स्वयं ही आदि, स्वयं ही मध्य और स्वयं ही अन्त रूप है अर्थात् जिसमें आदि, मध्य और अन्त का भेद नहीं है और जो इन्द्रियों के द्वारा भी ग्रहण नहीं किया जा सकता उस अविभागी द्रव्य को परमाणु समझना चाहिए।” प्रत्येक परमाणु षट्कोण आकार वाला, एक प्रदेशावगाही, स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण के समुदाय रूप, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु का कारण रूप मूर्तिक, परिणमनशील, स्वयं अशब्द रूप अखण्ड द्रव्य है ।" वह परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म है, अविभागी है, शब्द का कारण होकर भी स्वयं अशब्द रूप है और शाश्वत होकर भी उत्पाद तथा व्यय युक्त है, उसमें भी उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मकता पायी जाती है। यद्यपि परमाणु प्रत्यक्ष नहीं है लेकिन उसका स्कन्ध रूप कार्यों को देखकर अनुमान कर लिया जाता है। परमाणुओं में दो अविरोधी स्पर्श (शीत-उष्ण में से एक तथा स्निग्ध-रूक्ष में से एक), एक वर्ण, एक गन्ध और एक रस रहता है। ये स्वरूप की अपेक्षा से नित्य हैं लेकिन स्पर्श आदि पर्यायों की अपेक्षा से अनित्य भी हैं। इनका परिमाण परिमण्डल (गोल) होता है । 7
यद्यपि पुद्गल स्कन्ध में स्निग्ध- रूक्ष में से एक, शीत-उष्ण में से एक, मृदुकठोर में से एक और लघु-गुरु में से एक, ये चार स्पर्श होते हैं, किन्तु परमाणु के अत्यन्त सूक्ष्म होने से उसमें मृदु-कठोर, लघु-गुरु, उन चार स्पर्शों के होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता, इसलिए उसमें केवल दो ही स्पर्श माने गये हैं । इससे अन्य द्व्यणुक आदि स्कन्ध बनते हैं। इसलिए यह उनका अन्त्य कारण है। अर्थात् यह वस्तु मात्र में उपादान है, कार्य नहीं है । यद्यपि द्व्यणुक आदि स्कन्धों का भेद
32 :: जैनदर्शन में नयवाद
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