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नष्ट नहीं होता है। यह संसारावस्था में पुरातन शरीर को छोड़ता और नवीन शरीर को धारण करता रहता है, जिस प्रकार मनुष्य पुराने जीर्ण वस्त्रों को छोड़ देते और नवीन वस्त्रों को धारण करते रहते हैं। इस आत्मतत्त्व को न शस्त्र काट सकते हैं,न अग्नि जला सकती है, न पानी गला सकता है और न वायु सुखा सकती है। यह तो नित्य, निरंजन, शुद्ध, बुद्ध, अविरुद्ध, अनादि, अनन्त, चैतन्य स्वरूप, सत्-चित्आनन्द स्वरूप है। यह स्वभाव से ही ज्ञाता, द्रष्टा, अनन्त-सुख और अनन्त शक्ति वाला है। जीवत्वशक्ति से युक्त है। यह स्वयं ही अपने अच्छे-बुरे भाग्य का निर्माता है। अपने अच्छे-बुरे कर्मों का कर्ता और उन्हीं कर्मों के फलों का भोक्ता है। यह संकोच-विस्तार गुण के कारण अपने छोटे-बड़े प्राप्त किये हुए शरीर के आकार । वाला है। ऊर्ध्व गमन-स्वभाव वाला होने से मुक्त होने पर लोक के अन्त तक जाने वाला है। संक्षेप में यह जीव चैतन्य स्वरूप, जानने-देखने रूप उपयोग वाला, अमूर्तिक, कर्ता, भोक्ता, प्रभु, स्वदेह-परिमाण, संसारी, सिद्ध, स्वभाव से ऊर्ध्व गमन करने वाला तथा कर्मों से संयुक्त है।'
__ जीव का असाधारण लक्षण चेतना है और वह चेतना जानने-देखने रूप है। अर्थात् जो जानता और देखता है वह जीव है। सांख्यदर्शन भी चेतना को पुरुष का : स्वरूप मानता है, किन्तु वह उसे ज्ञानरूप नहीं मानता। उसके अनुसार ज्ञान प्रकृति का धर्म है। ज्ञान का उदय न तो अकेले पुरुष में ही होता है और न बुद्धि में ही होता है। जब ज्ञानेन्द्रियाँ बाह्य पदार्थों को बुद्धि के सामने उपस्थित करती हैं तो बुद्धि उपस्थित पदार्थ के आकार को धारण कर लेती है। उतने पर भी जब बुद्धि में चैतन्यात्मक पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ता है तभी ज्ञान का उदय होता है। परन्तु जैनदर्शन बुद्धि और चैतन्य में कोई भेद नहीं मानता। उसमें हर्ष-विषाद आदि अनेक पर्याय वाला ज्ञान रूप एक आत्मा ही अनुभव से सिद्ध है। चैतन्य, बुद्धि, अध्यवसाय, ज्ञान आदि उसी की पर्याय कहलाती हैं। अत: चैतन्य ज्ञानस्वरूप ही है और जीव चैतन्यात्मक है, जीव ज्ञान-दर्शन रूप चेतनायुक्त है, ज्ञान-दर्शन जीव के गुण या स्वभाव हैं, उसमें अपने निज के धर्म हैं। कोई भी जीव उनके बिना रह ही नहीं सकता। यह अनुभव सिद्ध है कि जो जीव है, वह ज्ञानवान् है और जो ज्ञानवान् है वह जीव है। जैसे-अग्नि अपने उष्ण गुण या स्वभाव को और पानी अपने शीतल गुण या स्वभाव को छोड़ कर नहीं रह सकते, वैसे ही जीव भी ज्ञानगुण के बिना नहीं रह सकता। संसार के सभी पदार्थ, चाहे वे जड़ हों या चेतन, उनका अस्तित्व उनके अपने गुण या स्वभाव या धर्म के ऊपर ही निर्भर रहता है। एकेन्द्रिय पेड़-पौधों में रहने वाले जीव से लेकर मुक्तावस्था में रहने वाले जीव तक
26 :: जैनदर्शन में नयवाद
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