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________________ के ही विविध प्रकार के परिणमन हैं। इसी प्रकार मन का भी पुद्गल द्रव्य या जीव द्रव्य में अन्तर्भाव हो जाता है। मन दो प्रकार का है-द्रव्य मन और भाव मन । द्रव्य मन का पुद्गल द्रव्य में और भाव मन का जीव द्रव्य में अन्तर्भाव हो जाता है तथा दिशा आकाश से पृथक् नहीं है, क्योंकि सूर्य के उदयादि की अपेक्षा से आकाश में पूर्व-पश्चिम आदि दिशाओं का विभाग किया जाता है। आकाश. काल और आत्मा या जीव-ये स्वतन्त्र रूप से जैनदर्शन में भी द्रव्य माने ही गये हैं। इसलिए वैशेषिक और भट्टों द्वारा स्वीकार किये गये सब द्रव्यों को जैनदर्शन में पृथक् रूप से स्वीकार नहीं किया गया है। 1. जीव द्रव्य-स्वरूप जिसमें ज्ञान-दर्शन रूप चेतना-शक्ति, भला-बुरा पहचानने का ज्ञान, सुख-दुख की भावना व संकल्पशक्ति पायी जाये, वह एक चैतन्यतत्त्व, ज्ञानात्मक तत्त्व, इन्द्रियातीत अमूर्तिक तत्त्व है। निगोद आदि संसारी अवस्थाओं में एक वही तो प्रकाशमान हो रहा है,वही तो ओत-प्रोत हो रहा है। ये सब इसी की तो अवस्थाएँ हैं, जिनका निर्माण अपनी कल्पनाओं के आधार पर इसने स्वयं ही किया है। जिसके होने से ही ये सब चैतन्य हैं, जिसके न होने से जड़ और इसलिए ईश्वर, परब्रह्म व जगत् का स्रष्टा यही तो है। परमात्मा व प्रभु इसी का ही तो नाम है। अचिन्त्य है इसकी महिमा। इसी परम तत्त्व को आगमकार 'जीव' व 'आत्मा' कहते हैं। कोई इसे सोल (Soul) कहते हैं तो कोई 'रूह'। यह आत्मतत्त्व मन, वाणी और इन्द्रियों के अगोचर है। इसकी प्रतीति अनुभूति द्वारा ही हो सकती है। प्राणियों के अचेतन तत्त्व से निर्मित देह के अन्दर स्वतन्त्र आत्मतत्त्व का अस्तित्व है। इसकी पहचान व्यवहार में पाँच इन्द्रिय, मन-वचन-काय रूप तीन बल, श्वासोच्छ्वास और आयु-इस प्रकार दश प्राणरूप बाह्य चिह्नों तथा निश्चय से चेतना के द्वारा हो सकती है। वैसे यह रस-रहित, रूपरहित, गन्धरहित, शब्दरहित, निर्दिष्ट आकाररहित, किसी भौतिक चिह्न द्वारा भी न पहचाना जाने वाला अव्यक्त तथा चैतन्य-गुणविशिष्ट है। यह एक शाश्वत स्वतन्त्र द्रव्य है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी आत्म द्रव्य को इसी प्रकार निरूपित किया गया है : यह अखण्ड है, अभेद है, अनादि है, अनन्त है, अजर है, अमर है, अजन्मा है। जन्म-मरण का चक्कर तो सब इस नश्वर शरीर के साथ ही है। यह आत्मा कभी भी किसी समय में न जन्म ग्रहण करता है और न मरता है अथवा न यह एक बार उत्पन्न होकर फिर होने वाला है; क्योंकि यह अज, नित्य, सनातन एवं प्राचीनतम है, शरीर के नाश होने पर भी यह नयवाद की पृष्ठभूमि :: 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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