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से वस्तुस्वरूप को जानना ही सम्यग्ज्ञान है। वस्तुस्वरूप के परिज्ञान के लिए दोनों ही नय आवश्यक हैं। जिस प्रकार वस्तु को देखने के लिए दो आँखें हैं उसी प्रकार वस्तुस्वरूप को समझने के लिए दो नयों की आवश्यकता रहती है। जो केवल एक आँख से देखता है वह काना कहलाता है इसी प्रकार जो केवल एक नय से पदार्थ को देखता है अर्थात् उसको जानता है वह एकान्ती है। प्रारम्भिक दशा में व्यवहारदृष्टि प्रबल रहती है और निश्चयदृष्टि निर्बल। आगे चलकर ज्यों-ज्यों निश्चयदृष्टि प्रबल होती जाती है त्यों-त्यों व्यवहारदृष्टि निर्बल होती जाती है। ये दोनों नय अथवा दोनों दृष्टियाँ तराजू के दो पलड़ों के समान हैं। तराजू अच्छी वही समझी जाती है जिसके दोनों पलड़ों में थोड़ा भी पासंग (अन्तर) न हो। वक्ता को इन दोनों दृष्टियों का सन्तुलन रखते हुए विवेचन करना चाहिए। इन दोनों नयों को तत्त्व-विवेचन में गौण और मुख्य तो किया जा सकता है, पर छोड़ा किसी को नहीं जा सकता अर्थात् न तो एक नय को प्रधान कर दूसरे नय को छोड़ा जा सकता है
और न दोनों नयों को प्रधान किया जा सकता है, न दोनों नयों को गौण किया जा सकता है। वस्तु को समझने के लिए दोनों नय समान हैं, कोई छोटा या बड़ा नहीं है। दोनों की सापेक्षता अपेक्षित है।
यहाँ विशेषरूप से यह भी विचारणीय है कि नयों की सूक्ष्मविषयता से अनभिज्ञ जन व्यवहार को सर्वथा हेय कहने लगते हैं, किन्तु वे इस बात को भूल जाते हैं कि एक तो अध्यात्म के प्रतिष्ठापक आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने समयसार आदि अध्यात्मग्रन्थों में व्यवहार को हेय तो कहा किन्तु सर्वथा हेय नहीं कहा। उन्होंने निश्चय और व्यवहार दोनों के विवेचन में अनेकान्तदृष्टि को नहीं छोड़ा है, सापेक्ष निरूपण ही किया है। दूसरी बात यह है कि व्यवहारनय भी अनेकान्तात्मक वस्तुप्रतिपादक नयविकल्प रूप ज्ञान की ही पर्याय है। वह वस्तु में जो भाव नहीं है उसका भी भेद और उपचार से कथन करता है इसलिए असत्यार्थ या मिथ्या कहा जाता है। वैसे तो वह भी सापेक्षता से वस्तुस्वरूप का प्रतिपादक होने से सम्यक्नय है। हाँ उसके प्रतिपाद्य-विषय को ही कल्याणकारी समझकर उपादेय मानना मिथ्या ही नहीं, सर्वथा मिथ्या है, अतएव हेय है, किन्तु सापेक्षता से वस्तुस्वरूप का प्रतिपादक होने से वह मिथ्या नहीं, सम्यक् है । व्यवहार का अपना विषय तथा सीमा है और निश्चय का भी अपना विषय तथा सीमा है। दोनों ही अपनी-अपनी दृष्टि से अपने-अपने विषय के प्रतिपादक हैं, किन्तु वह प्रतिपादन सापेक्षता से ही करते हैं तभी वस्तुस्वरूप की यथार्थ सिद्धि होती है। इस प्रकार इन दोनों नयों के स्वरूप
266 :: जैनदर्शन में नयवाद
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