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________________ क्यों नहीं स्वीकार किया गया है ? 'वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक होने से उसके दो ही अंश माने गये हैं; अत: दो ही नय मानना उचित है। यदि ऐसा कहा जाय तो 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' इस सूत्र के द्वारा वस्तु अंशत्रयात्मक क्यों बतायी गयी है? अतः तीसरा गुणार्थिक नय भी मानना उचित ही है? ___ यद्यपि 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' इस वचन के अनुसार द्रव्य की अंशत्रयात्मकता प्रतिभासित होने से उक्त शंका का प्रादुर्भाव होना स्वाभाविक है तो भी वह ठीक नहीं है, क्योंकि गुण सहभाविपर्याय होने से उसका पर्याय-सामान्य में अन्तर्भाव हो जाता है। पर्याय के सहभाविपर्याय और क्रमभावि पर्याय ये दो विशेष भेद हैं। इन दोनों का पर्याय सामान्य में अन्तर्भाव होता है। विशेषों का सामान्य में नियम से अन्तर्भाव होता है; क्योंकि सामान्य के अभाव में विशेषों का सद्भाव होना असम्भव है। अत: जब सहभावि पर्याय रूप गुण का पर्याय सामान्य में अन्तर्भाव होता है तब वस्तु की अंशद्वयात्मता सिद्ध हो जाती है और वस्तु की अंशद्वयात्मकता की सिद्धि हो जाने से प्रत्येक अशं को जानने वाली नय की भी द्विविधता भी सिद्ध हो जाती है। एक नय द्रव्यमूलक होता है और दूसरा पर्याय-मूलक होता है। द्रव्यमूलक नय द्रव्यार्थिक नय कहा जाता है और पर्यायमूलक नय पर्यायार्थिक नय कहा जाता है। अतः गुणमूलक तीसरा गुणार्थिक नय का सद्भाव होना असम्भव है। अतः मूलनय दो ही हैं और ये ही नैगमादि नयों के मूल कारण हैं, तीसरा गुणार्थिक नय नैगमादि नयों का मूल कारण नहीं हो सकता। यदि सहभावि पर्याय रूप होने से गुण का पर्यायार्थिक नय में अन्तर्भाव होने पर भी गुणार्थिक नय को एक अलग नय भेद माना जाय तो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का द्रव्यार्थिक नय सामान्य में अन्तर्भाव होने पर शुद्ध द्रव्यार्थिक नय को भी एक अलग-नय भेद क्यों न माना जाये? अतः दो ही नय मानना उचित है। ये दो ही नय नैगमादि नयों के मूल कारण मानने योग्य हैं। (1) नैगमनय-जैसा कि पहले कहा जा चुका है नैगमनय ज्ञाननय भी और और अर्थनय भी है। अतः इस नय के दो लक्षण किये गये हैं-एक ज्ञाननय की अपेक्षा से और दूसरा अर्थनय की अपेक्षा से। ज्ञाननय की अपेक्षा से पहला लक्षण तो 'नैगम' शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर किया गया है-'नि' उपसर्गपूर्वक 'गम्' धातु से अच्' प्रत्यय करने पर 'निगम' शब्द बनता है, जिसका अर्थ है संकल्प या विकल्प और 'निगम' शब्द के कुशल या भव अर्थ में अण' प्रत्यय करने पर 'नैगम' शब्द की सिद्धि होती है। इसका अर्थ है संकल्प करना। वास्तव में निगम' शब्द का अर्थ है 'अन्दर से बाहर निकलना' । ज्ञान में से नयों का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 229 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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