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________________ के इसी प्रकार भेद-प्रभेद किये हैं। तृतीय प्रकार नैगमादि नय-विवेचन-जैसा कि पहले कहा जा चुका है 'जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नय हैं'65 किन्तु नैगमादि नयों का ही जैनागम ग्रन्थों में सविस्तर विवेचन पाया जाता है। सभी नय प्रमाण के समान श्रुतज्ञानात्मक होते हैं। प्रमाणज्ञान वस्तुगत एक गुण के द्वारा सम्पूर्ण वस्तु का कथन करता है; क्योंकि प्रमाण के विषयभूत एक गुण का अर्थगत अनेक धर्मों के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रहता है। प्रमाण के द्वारा जाने गये अर्थ के एक देश को जानने वाले श्रुतज्ञान विशेष को नय कहते हैं। इसी प्रकार नय के अन्य लक्षण भी जैनाचार्यों ने किये हैं, किन्तु इन सभी लक्षणों का अभिप्राय एक ही है। संक्षेप में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो ही मूल नय हैं। जो वस्तु के द्रव्यांश को विषय करता है वह द्रव्यार्थिक और जो पर्याय को अपना विषय बनाता है वह पर्यायार्थिक नय है। यह सब ऊपर भी कहा गया है। इन दोनों नयों के ही भेद नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये सात नय हैं। इन नैगमादि सात नयों में से पहले तीन अर्थात् नैगम, संग्रह और व्यवहार ये द्रव्यार्थिक अर्थात् द्रव्यप्रधान नय हैं और शेष चार अर्थात् ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये पर्यायार्थिक अर्थात् पर्यायप्रधान नय हैं। प्रथम तीन नयों का मूल कारण द्रव्यार्थिक नय है और शेष चार नयों का मूल कारण पर्यायार्थिक नय है। ये नैगमादि सात नय इन दोनों नयों के विस्तार रूप ही हैं। वैसे अति विस्तार की दृष्टि से नयों के भेद संख्यात भी होते हैं। ____ ज्ञानादि तीन नयों की अपेक्षा से इन सात नयों में से आदि के चार नयों को अर्थात् नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र को अर्थनय कहते हैं, क्योंकि ये अर्थ की प्रधानता से वस्तु का ग्रहण करते हैं और शब्दप्रधान होने से शेष तीन नयों अर्थात शब्द, समभिरूढ और एवंभूत को शब्दनय कहते हैं। किन्तु इतना विशेष समझना कि नैगमनय अर्थनय होने के साथ-साथ ज्ञाननय भी है, अतः नैगमनय ज्ञाननय भी है और अर्थनय भी है। यहाँ पर यह आशंका हो सकती हैं कि 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्'68 इस तत्त्वार्थ सूत्र के वचन के अनुसार जब वस्तु त्र्यंशरूप है अर्थात् द्रव्य, गुण, पर्याय इन तीनों अंशों से युक्त अंशिरूप है तब उसको दो अंश वाली मानकर द्रव्यांशग्राही और पर्यायांशग्राही दो नयों को ही क्यों माना गया है ? गुणांशग्राही गुणार्थिक नय को 228 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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