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________________ वह द्रव्य है। ° इसी प्रकार द्रव्य का यह व्युत्पत्तिपरक लक्षण आचार्य कुन्दकुन्द, " पूज्यपादआचार्य देवसेन, 4 माइल्ल धवल, 45 धवलाकार, 1 42 46 स्वामी, 12 अकलंक देव, 43 जयधवलाकार +7 आदि ने भी किया है। 1 यह 'द्रव्य' ही जिसका अर्थ (प्रयोजन) हो, उसे द्रव्यार्थिक नय कहते हैं। 48 द्रव्य का अर्थ सामान्य, अभेद, अन्वय और उत्सर्ग भी है, इसको विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिक नय है 149 'पर्याय' शब्द 'परि' उपसर्गपूर्वक 'इण्' धातु से 'ण' प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है। 'परि' उपसर्ग का अर्थ है 'कालकृत भेद' और 'इण्' धातु का अर्थ है ‘गमन या प्राप्ति' अर्थात् जो कालकृत भेद को प्राप्त होती है या जो सब ओर से भेद को प्राप्त करे, उसे पर्याय कहते हैं अथवा जो स्वभाव विभाव रूप से पूरी तरह द्रव्य को प्राप्त होती है वे पर्याय हैं। 'पर्याय' शब्द में परि उपसर्ग का अर्थ 'भेद' है और उससे ऋजुसूत्र वचन अर्थात् वर्तमान वचन का विच्छेद जिस काल में होता है वह काल लिया गया है। ऋजुसूत्र का विषय वर्तमान पर्याय मात्र और उसके वचन को विच्छेद रूप काल भी वर्तमान समय मात्र होता है। इस प्रकार जो वर्तमान काल एक समय को प्राप्त होती है उसे पर्याय कहते हैं" ऋजुसूत्र प्रतिपादक वचनों का विच्छेद जिस काल में होता है वह काल जिन नयों का मूल आधार है, वे पर्यायार्थिक नय हैं । विच्छेद अथवा अन्त जिस काल में होता है उस काल को विच्छेद कहते हैं। वर्तमान वचन को ऋजुसूत्र वचन कहते हैं और उसके विच्छेद को ऋजुसूत्र वचन विच्छेद कहते हैं । वह ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों का विच्छेद रूप काल जिन नयों का मूल आधार है, उन्हें पर्यायार्थिक नय कहते हैं अर्थात् ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों के विच्छेद रूप समय से लेकर एक समयपर्यन्त वस्तु-स्थिति का निश्चय करने वाले पर्यायार्थिक नय हैं। 3 उक्त पर्याय भी जिस नय का प्रयोजन हो, उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं । 4 पर्याय का अर्थ विशेष, भेद, व्यतिरेक और अपवाद है, इसको विषय करने वाला नय पर्यायार्थिक नय है 155 इस प्रकार ये द्रव्यार्थिक और पर्यार्थिक नय के सैद्धान्तिक और व्युत्पत्तिपरक लक्षण किये गये हैं। उपरि-विवेचित कथन का निष्कर्ष यही है कि द्रव्य को मुख्य रूप से ग्रहण करने वाला नय द्रव्यार्थिक और पर्याय को मुख्य रूप से ग्रहण करने वाला नय पर्यायार्थिक नय है अर्थात् जो पर्याय को गौण करके और द्रव्य को मुख्य करके ग्रहण करता है उसे द्रव्यार्थिक नय कहते हैं और जो द्रव्य को गौण करके 226 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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