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________________ अनेक कालवर्ती व एक क्षेत्रवर्ती आगे पीछे होने वाली एक ही द्रव्य की अनेक पर्यायों में रहने वाली पृथक्ता ऊर्ध्वता-विशेष है। जैसे-एक व्यक्ति में आगे पीछे उदय होने वाला हर्ष व विषाद, क्योंकि 'यहाँ भी जो हर्ष का स्वरूप है वही विषाद का नहीं है' इस प्रकार का विसदृश-प्रत्यय प्राप्त होता है। आचार्य माणिक्यनन्दि, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र आदि ने विशेष के पर्याय और व्यतिरेक-इस प्रकार से दो भेद किये हैं। एक द्रव्य में क्रम से होने वाले परिणामों को पर्याय कहते हैं। जैसे-आत्मा में हर्ष-विषाद आदि परिणाम क्रम से होते हैं, वे ही पर्याय हैं। ___एक पदार्थ की अपेक्षा अन्य पदार्थ में रहने वाले विसदृश परिणाम को व्यतिरेक कहते हैं। जैसे-गाय, भैंस आदि में विलक्षणपना पाया जाता है। श्री वादिदेव सूरि ने विशेष के गुण और पर्याय इस प्रकार दो भेद किये हैं।" सहभावी-सदा साथ रहने वाले धर्म को गुण कहते हैं। एक द्रव्य में क्रम से होने वाले परिणाम को पर्याय कहते हैं। जैसे-आत्मा में सुख-दुःखादि। सदैव द्रव्य के साथ रहने वाले धर्मों को गुण कहते हैं। जैसे-आत्मा में ज्ञान और दर्शन सदा रहते हैं, इनका कभी विनाश नहीं होता, अतएव ये आत्मा के गुण हैं। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श सदैव पुद्गल के साथ रहते हैं, पुद्गल से एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होते, अतः रूपादि पुद्गल के गुण हैं । गुण-द्रव्य की भाँति अनादि अनन्त होते हैं। पर्याय इससे विपरीत है। यह उत्पन्न होती रहती है और नष्ट भी होती रहती है। आत्मा जब मनुष्य भव (पर्याय) का त्यागकर देवभव (पर्याय) में जाता है तब मनुष्य पर्याय का विनाश हो जाता है और देव-पर्याय की उत्पत्ति हो जाती है। एक वस्तु की एक पर्याय का नाश होने पर उसके स्थान पर दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है। अतएव पर्याय को क्रमभावी कहा है। ऊपर कहा गया है कि प्रत्येक वस्तु सामान्य-विशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक है, अतः सामान्य या द्रव्यांश का ग्राही द्रव्यार्थिक नय है और विशेष ' या पर्यायांश का ग्राही पर्यायार्थिक नय है। वस्तु के सामान्य और विशेषांश पर पूर्ण विचार किया जा चुका है। अब द्रव्य और पर्याय के व्युत्पत्तिपरक लक्षण विवेचनीय 'द्रव्य' शब्द 'द्रु' (द्रव्) धातु से 'य' प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। 'द्रु' (द्रव्) का अर्थ है जाना या प्राप्त करना। इस प्रकार 'द्रव्य' शब्द का व्युत्पत्ति परक अर्थ हुआ-जो उन-उन पर्यायों को प्राप्त होता है, प्राप्त होगा और प्राप्त हुआ था, नयों का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 225 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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