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अर्थ (वस्तु) के एक देश, गुण अथवा पर्याय को ग्रहण करने वाला ज्ञान 'अर्थनय' है।
इस प्रकार यद्यपि नय के तीन भेद कर दिये गये हैं-ज्ञान, शब्द और अर्थ। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि शब्द या अर्थ (वस्तु) स्वयं नय रूप है, नय तो स्वयं ज्ञान रूप ही है। वह ज्ञान जिस प्रकार की वस्तु का आश्रय लेकर उत्पन्न होता है उस नाम से ही वह ज्ञान उपचार से पुकारा जाता है। जैसे-घी के आश्रय- भूत घड़े को भी घी का घड़ा उपचार से कहा जाता है। अत: ज्ञान को विषय करने वाला ज्ञान 'ज्ञान नय' कहा जाता है। शब्द को विषय करने वाला ज्ञान ‘शब्द नय' कहा जाता है और अर्थ (वस्तु) को विषय करने वाला ज्ञान 'अर्थनय' कहा जाता है। ये तीनों नय अपने स्वरूप से ज्ञानात्मक ही हैं, शब्दात्मक व अर्थात्मक नहीं।
यहाँ इस प्रकरण में नैयायिक आदि यह शंका उपस्थित कर सकते हैं कि अर्थ नय और शब्द नय कहना तो ठीक है परन्तु ज्ञान नय कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञान 'अर्थ' को तथा 'शब्द' को तो विषय करता देखा जाता है, पर ज्ञान स्वयं ज्ञान को ही विषय करता हो ऐसा देखा नहीं जाता, किन्तु ऐसी शंका करना ठीक नहीं है; क्योंकि दीपक के समान ज्ञान स्व-पर-प्रकाशक है। जिस प्रकार दीपक अन्य पदार्थों को प्रकाशित करता हुआ स्वयं को भी प्रकाशित कर लेता है, उसे स्वयं को प्रकाशित करने के लिए अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसी प्रकार ज्ञान भी अन्य पदार्थों को जानता हुआ स्वयं अपने को भी वह स्वयं ही जान लेता है। उसे अपने आपको जानने के लिए अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं पड़ती। जैसे'मैं घट-पट आदि पदार्थों को अपने आप ही जानता हूँ, इस प्रकार की स्वानुभवजन्य प्रतीति स्वयं ही होती है' इस बात को सभी जानते हैं। इस स्वानुभव-जन्य प्रतीति को उत्पन्न करने के लिए अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इससे सिद्ध होता है कि ज्ञान जिस प्रकार अर्थ और शब्द को विषय करता है उसी प्रकार स्वयं-अपने आपको (ज्ञान को) भी विषय करता है। इस प्रकार ज्ञान तीन प्रकार की वस्तुओं को ग्रहण करने के कारण तीन प्रकार का हो जाता है-ज्ञान नयरूप, अर्थ नयरूप और शब्द नयरूप।
ज्ञान, अर्थ और शब्द-इन तीनों में ज्ञान सबसे बड़ी वस्तु है, अर्थ उससे छोटी है और शब्द सबसे छोटी है। 'ज्ञान' सत् और असत् सब प्रकार के पदार्थों को जानने में समर्थ है। 'सत्' पदार्थों को तो ज्ञान जानता ही है, पर कल्पना के आधार पर 'गधे का सींग', आकाश पुष्प, कूर्म रोम, बन्ध्या पुत्र आदि काल्पनिक बातों को भी ज्ञान जानता ही है, अतः ज्ञान में अर्थ और शब्दजन्य प्रतिभास भी होता है तथा कल्पनाजन्य प्रतिभास भी। कल्पनाजन्य प्रतिभास नियम से ज्ञान विषयक ही
218 :: जैनदर्शन में नयवाद
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