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________________ अर्थ क्रिया रूप से वस्तु की जो अर्थ में सत्ता रहती है उसे अर्थात्मक वस्तु कहते हैं। जैसे-ज्ञान में प्रतिबिम्बित 'गाय' ज्ञानात्मक गाय है। ब्लैक बोर्ड (श्याम पट) पर लिखा हुआ 'गाय' शब्द या मुख से बोला हुआ 'गाय' शब्द शब्दात्मक गाय है और दूध देने रूप अर्थ क्रिया करने वाली असली 'गाय' अर्थात्मक गाय है। इन तीनों में से ज्ञानात्मक वस्तु स्वयं जानी जा सकती है; परन्तु न दूसरे को दिखाई जा सकती है और न किसी प्रयोग में लाई जा सकती है। जैसे-ज्ञानात्मक 'गाय' स्वयं जानी जा सकती है; परन्तु न किसी को दिखाई जा सकती है और न उससे दूध दुह कर पेट भरा जा सकता है। शब्दात्मक वस्तु स्वयं भी पढ़ी व सुनी जा सकती है, दूसरे को भी पढ़ाई व सुनाई जा सकती है; परन्तु उसे किसी प्रयोग में नहीं लाई जा सकती। जैसेशब्दात्मक 'गाय' या 'गाय' नाम का शब्द स्वयं भी पढ़ा व सुना जा सकता है, दूसरे को भी पढ़ाया या सुनाया जा सकता है; परन्तु उससे दूध दुहकर पेट नहीं भरा जा सकता है। । अर्थात्मक वस्तु स्वयं भी जानी व देखी जा सकती है, दूसरे को भी सुनाई व दिखाई जा सकती है और उसको प्रयोग में भी लाया जा सकता है। जैसे-दूध देने वाली गाय स्वयं भी जानी व देखी जा सकती है, दूसरे को भी जनाई व दिखाई जा सकती है और उससे दूध दुहकर पेट भी भरा जा सकता है। इस प्रकार वस्तु तीन प्रकार की है-ज्ञानात्मक, शब्दात्मक और अर्थात्मक। चौथी प्रकार की वस्तु लोक में नहीं है। तीन प्रकार की वस्तुओं को जानने वाला ज्ञान भी तीन प्रकार का होना चाहिए। ... ज्ञान दो प्रकार का है-प्रमाण रूप और नय रूप । अखण्ड वस्तु को जानने वाला एकरसात्मक ज्ञान प्रमाण कहलाता है और उस वस्तु के एक देश को जानने वाला अंशज्ञान. नय कहलाता है। अतः प्रमाण भी तीन प्रकार का है-ज्ञानात्मक प्रमाण, शब्दात्मक प्रमाण और अर्थात्मक प्रमाण। प्रत्यक्षज्ञान ज्ञानात्मक प्रमाण है, आगम या द्रव्यश्रुत शब्दात्मक प्रमाण है तथा वस्तु स्वयं अर्थात्मक प्रमाण है। __ अतः नय भी तीन प्रकार का है-ज्ञाननय, शब्दनय और अर्थनय। भावात्मक श्रुतज्ञान रूप प्रमाण के एक देश को ग्रहण करने वाला ज्ञान 'ज्ञान नय' कहलाता है। शब्दात्मक श्रुतज्ञान रूप प्रमाण अर्थात् आगम के एक देश को जानने वाला ज्ञान 'शब्दनय' है अर्थात् आगम में प्रयुक्त अनेक प्रकार की युक्तियों वाला वाक्यों का ज्ञान 'शब्दनय' है। नयों का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 217 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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