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________________ और वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाले अभिप्राय को नय कहते हैं तो द्रव्यांश का ग्राहक द्रव्यार्थिक और पर्यायांश का ग्राहक पर्यायार्थिक नय ही मूल नय होने. चाहिए; क्योंकि द्रव्य और पर्याय से भिन्न तो कोई वस्तु है नहीं। इन्हीं दोनों मूल नयों में शेष सब नयों का अन्तर्भाव हो जाता है। जितने भी वचन मार्ग हैं उतने ही नय हैं अतः नयों की संख्या असंख्यात है। वे असंख्यात नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के ही भेद हैं; क्योंकि उन सब का विषय या तो द्रव्य है या पर्याय । सैद्धान्तिक दृष्टि का लक्ष्य वस्तु-स्वरूप की विवेचना करना है इसलिए वह वस्तु का विश्लेषण करके उसकी तह तक पहुँचने की चेष्टा करती है । इस दृष्टि में वस्तु - विवेचना का आधार है द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय; क्योंकि ये दोनों वस्तु-मात्र के विवेचन के लिए उपयोगी हैं, इनका मुख्य उद्देश्य वस्तु स्वरूप का विश्लेषण करना है। इसी से सिद्धान्त ग्रन्थों में सर्वत्र इन्हीं का कथन मिलता है; क्योंकि इनके तथा इनके भेद - प्रभेदों के द्वारा ही वस्तु का यथार्थ विवेचन किया जाता है। आशय यह है कि जैनदर्शन के अनुसार वस्तु अनेकान्तात्मक है। वह नित्य भी है, अनित्य भी है, एक भी है अनेक भी है, सत् रूप भी है, असत् रूप भी है, तद्रूप भी है, अतद्रूप भी है । द्रव्य रूप से नित्य है, एक है, सत्रूप है और तद्रूप है। पर्याय रूप से वही वस्तु अनित्य है, अनेक है, असत् रूप है और अतद्रूप है। द्रव्यरूप को जानने वाली दृष्टि का नाम द्रव्यार्थिक है और पर्याय रूप को जानने वाली दृष्टि का नाम पर्यायार्थिक नय है। तथा द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तु को जानने वाला ज्ञान प्रमाण है, प्रमाण के ही भेद नय हैं। प्रमाण अनेकान्तात्मक वस्तु को पूर्ण रूप से जानता है, तो नय उस वस्तु के किसी एक धर्म को लेकर तथा उसके अन्य धर्मों को गौण करके उसका विवेचन करता है । इस तरह सैद्धान्तिक दृष्टि से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ही मूल नय हैं तथा नैगमादि सात नय उनके भेद हैं, जो सामान्य - विशेषात्मक या द्रव्य - पर्यायात्मक वस्तु के एक - एक अंश का यथार्थ विवेचन करते हैं । यही नयों का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण है। नयों के भेद-प्रभेद नयों के भेद-प्रभेदों की कोई संख्या निश्चित नहीं है; क्योंकि ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को नय कहा गया है और अभिप्राय के अनुसार ही वक्ता वचन प्रयोग करता है, अतः अभिप्रायमूलक वचनों के बराबर तो नय होने ही चाहिए' क्योंकि नयों की संख्या भी वक्त अपने अभिप्राय से ही निश्चित करता है और अभिप्राय अनेक 214 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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