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तरह अवस्तु कहलाएगा। अपने स्वरूप को अपनाकर भी यदि वह अपने से भिन्न पट आदि वस्तुओं के स्वरूप को भी अपनाये तो घट-पट में कोई भेद ही नहीं रहेगा। अतः घट घट ही है, घट पट नहीं है। इन दो बातों पर ही घट का अस्तित्व बनता है। इसे ही कहते हैं, घट है भी और नहीं भी है। अपने स्वरूप से है और अपने से भिन्न स्वरूप से नहीं है । इसी तरह घट नित्य भी है और अनित्य भी है। घट मिट्टी से बना है। घट फूटने पर भी मिट्टी तो रहेगी ही । अतः अपने मूल कारण मिट्टी द्रव्य के नित्य होने से घट नित्य है और घट पर्याय तो नित्य नहीं है, घट
फूटते की वह मिट जाती है । अतः घट पर्याय की अपेक्षा अनित्य है । इसी तरह प्रत्येक वस्तु द्रव्य रूप से नित्य है और पर्याय रूप से अनित्य है । त्रैकालिक अन्वयरूप परिणाम की अपेक्षा नित्य है और प्रति समय होने वाली पर्याय की अपेक्षा अनित्य है। इससे वस्तु की परिणामी नित्यता सिद्ध होती है । किन्तु इन दोनों धर्मों का वस्तु में एक साथ कथन नहीं किया जा सकता है, उनका क्रम से कथन करना पड़ता है। इसलिए जिस समय जिस धर्म का कथन किया जाता है उस समय उसको स्वीकार करने वाली दृष्टि मुख्य हो जाती है। और इससे विरोधी धर्म को स्वीकार करने वाली दृष्टि गौण हो जाती है। इसप्रकार मुख्यता और गौणता के विवक्षा भेद से एक ही वस्तु में, एक ही साथ और एक ही समय में परस्पर विरोधी मालूम पड़ने वाले धर्मों के अस्तित्व की सिद्धि भली-भाँति हो जाती है। जैनदर्शन के अनुसार यही सत् या वस्तु का यथार्थ स्वरूप है, जो नयों की सापेक्षता या समन्वयवादी दृष्टिकोण से सिद्ध होता है ।
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नयों के समन्वयवादी दृष्टिकोण द्वारा यह तो विभिन्न दार्शनिक पक्षों का समन्वय है। इसी प्रकार नयों के इस समन्वयवादी दृष्टिकोण का प्रयोग यदि लौकिक जीवन-जगत् के व्यवहारों में भी किया जाय तो हमारे दैनिक जीवन - व्यवहारों में पद-पद पर पैदा होने वाले विवाद, मतभेद, संघर्ष और गृहकलह समाप्त होकर हमारा वर्तमान जीवन सुखी और शान्त हो सकता है। और तो क्या, यदि आज के विश्व की वर्तमान समस्याओं के समाधान के लिए भी इस समन्वयवादिता का प्रयोग किया जाय तो विश्व के सभी राष्ट्रों की तनावपूर्ण समस्याओं का समाधान सहज ही हो सकता है ।
सन्दर्भ
1. जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया।
जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया । । - स. प्र. का, 3/47
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नयों का समन्वयवादी दृष्टिकोण :: 211
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