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________________ (6) स्यान्नास्ति अवक्तव्यो घटः, (7) स्यादस्ति-नास्ति अवक्तव्यो घटः। ये सात भंग हैं। वक्तव्य में गौण, मुख्य भाव नियत करने वाली यह सप्तभंग विधि है।287 यहाँ अस्तित्व धर्म को लेकर कहीं विधि, कहीं निषेध और कहीं विधिनिषेध-दोनों क्रम से और कहीं दोनों एक साथ घट में बताये गये हैं। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि 'घट' यदि 'है' तो 'नहीं' कैसे? घट 'नहीं' है तो 'है' कैसे? इस विरोध को दूर करने के लिए ही प्रत्येक भंग के साथ 'स्यात्' (कथंचित् या किसी अपेक्षा से) पद जोड़ा गया है, जिसका अर्थ है कि समस्त चेतन-अचेतन पदार्थ स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से सत् स्वरूप (अस्तिरूप) हैं और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से असत्स्वरूप (नास्ति रूप) हैं। यदि ऐसा अपेक्षया स्वीकार न किया जाय तो किसी इष्ट तत्त्व की व्यवस्था ही नहीं बन सकती है। जैसे (1) स्यात् अस्ति घटः-घड़ा कथंचित् है, घड़ा स्वचतुष्टय की अपेक्षा से है। (2) स्यात् नास्ति घट:-घड़ा परचतुष्टय की अपेक्षा से नहीं है। .. (3) स्यात् अस्ति-नास्ति घट:-घड़ा कथंचित् है और कथंचित् नहीं है, घड़े में स्वचतुष्टय अर्थात् स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से अस्तित्व और परचतुष्टय अर्थात् परद्रव्यादि की अपेक्षा से नास्तित्व धर्म है। यहाँ क्रम से विधि-निषेध की विवक्षा की गयी है। ___(4) स्यात् अवक्तव्यो घट:-घड़ा कथंचित् अवक्तव्य है। जब विधि और निषेध दोनों की एक साथ विवक्षा होती है तब दोनों को एक साथ कहने वाला कोई शब्द न होने से घड़े को कथंचित् अवक्तव्य कहा जाता है। (5) स्यात् अस्ति अवक्तव्यो घट:-केवल विधि और एक साथ विधिनिषेध की विवक्षा करने से 'घड़ा' है और अवक्तव्य है। (6) स्यात् नास्ति अवक्तव्यो घट:-केवल निषेध और एक साथ विधिनिषेध दोनों की विवक्षा होने से घड़ा नहीं है और अवक्तव्य है। (7) स्यात् अस्ति-नास्ति अवक्तव्यो घट:-क्रम से विधि-निषेध दोनों की और एक साथ विधि-निषेध दोनों की विवक्षा होने से 'घड़ा है', 'घड़ा नहीं है' और अवक्तव्य है। इस प्रकार ये सात भंग हैं। इन सातों भंगों या वचन प्रकारों के समूह को 'सप्तभंगी कहते हैं। इन सात वाक्यों का मूल विधि और निषेध है। इसलिए आधुनिक विद्वान् इसे विधि-प्रतिषेधमूलक पद्धति के नाम से भी पुकारते हैं। यहाँ घट पदार्थ के एक अस्तित्व धर्म को लेकर उक्त सात भंग बनाये गये हैं। इसका कारण यह है कि जब हम वस्तु के अस्तित्व धर्म का विचार करते हैं तो अस्तित्व 172 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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