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कर्थन किया जाता है। इसी प्रकार व्यवहार में जो भी शब्द प्रयोग होता है वह भी नय की अपेक्षा होता है। व्यवहार का सम्पूर्ण सत्य इसी के अन्तर्गत आता है। जैनदर्शन के संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा बाद के अन्य सभी मूल ग्रन्थों में नय का . विवेचन किया गया है। वास्तव में नयवाद के विवेचन के बिना जैन सिद्धान्तों की व्याख्या की ही नहीं जा सकती है। नयवाद का विवेचन जैनदर्शन का ऐसा अनिवार्य अंग है कि जैन-वाङ्मय में आगम साहित्य से लेकर आधुनिकतम साहित्य तक में इसका प्रतिपादन किया गया है। जैनेतर दर्शनों में वस्तु-तत्त्व के विवेचन की जो प्रक्रिया है जैनदर्शन में उससे भिन्न है। इस प्रकार भारतीय दर्शन में नयवाद जैनदर्शन की एक मौलिक देन है। (2) नयों की उपयोगिता
जैनदर्शन में नयों की बड़ी उपयोगिता और महत्त्व बतलाया गया है; क्योंकि उसमें वस्तु-विवेचन नयों के द्वारा किया जाता है। उसमें एक भी सूत्र और अर्थ ऐसा नहीं है जो नयशून्य हो। जैनदर्शन को समझने के लिए नयदृष्टि को समझना अत्यावश्यक है। प्रमाण के साथ नयदृष्टि के माध्यम से वस्तु स्वरूप की प्ररूपणा ही तो जैनदर्शन है। बिना नयदृष्टि को समझे जैनदर्शन जटिल मालूम पड़ता है और उस निर्दोष प्रणाली में संशयादि दोष दृष्टिगत होने लगते हैं। तात्पर्य यह है कि नयों का सम्यग्ज्ञान हुए बिना वस्तु-स्वरूप का ठीक-ठीक परिज्ञान ही नहीं हो सकता। श्री माइल्ल धवल ने नय दृष्टि का महत्त्व बताते हुए कहा है, 'जो नयदृष्टि-विहीन हैं, उन्हें वस्तु के स्वरूप की उपलब्धि नहीं हो सकती है और जिन्हें वस्तु-स्वरूप की उपलब्धि नहीं है, वे सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं।?'3 सम्यग्दृष्टि बनने के लिए वस्तु-स्वरूप का ज्ञान होना आवश्यक है और वस्तुस्वरूप के ज्ञान के लिए नयदृष्टि का होना आवश्यक है। नयदृष्टि के बिना वस्तु के स्वरूप को ठीक-ठीक नहीं जाना जा सकता। वस्तु-स्वरूप या जीवादि तत्त्वों के प्रति सच्ची श्रद्धा तभी जाग्रत् हो सकती है जब हम उनके स्वरूप को यथार्थ रूप में जान सकें और उनके यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए हमें नयदृष्टि का सहारा लेना पड़ेगा; क्योंकि परस्पर सापेक्ष दो विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों के अनन्त युगलों को वस्तु अपने अन्तस्तल में छिपाये बैठी है। अर्थात् अनेकान्त के अंगभूत परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले अनन्त धर्म युगल प्रत्येक वस्तु में समाये हुए हैं। यदि नयदृष्टि का सहारा नहीं लिया जाएगा और परस्पर सापेक्ष दो विरोधी धर्मों को निरपेक्ष दृष्टि से देखा जाएगा तो हम वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जान ही नहीं सकेंगे।
14 :: जैनदर्शन में नयवाद
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