SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तथा जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण238 आदि ने भी सामान्य रूप से यही कहा है किनाम, स्थापना और द्रव्य-ये तीनों द्रव्यार्थिक नय के निक्षेप हैं और भाव पर्यायार्थिक नय का निक्षेप है। आचार्य सिद्धसेन239 के मतानुसार द्रव्यार्थिक नय के दो भेद हैं-संग्रह और व्यवहार; क्योंकि सामान्यग्राही नैगम नय का संग्रह नय में और विशेषग्राही नैगम नय का व्यवहार नय में अन्तर्भाव हो जाता है। पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैंऋजु-सूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय। इस प्रकार इन के मत से नयों के छह भेद हैं। इनके इस मत के अनुसार, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी कहा है-संग्रह और व्यवहार नय द्रव्यार्थिक के भेद हैं और ऋजुसूत्रादि शेष चार नय पर्यायार्थिक के भेद हैं। आचार्य पूज्यपाद नैगम नय को स्वतन्त्र मानते हैं अतः इनके मत से नैगम, संग्रह और व्यवहार-ये तीनों द्रव्यार्थिक नय हैं और ऋजसूत्र, शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत नय पर्यायार्थिक हैं 41 इस प्रकार आचार्य सिद्धसेन, जिनभद्रगणि और पूज्यपाद-इन तीनों के मत से ऋजुसूत्रादि चारों नय पर्यायार्थिक हैं, अत: ये केवल भाव-निक्षेप को ही विषय करते हैं और नैगम, संग्रह और व्यवहार नाम, स्थापना और द्रव्य का विषय करते हैं; किन्तु जिनभद्रगणि ने अपने निज के मतानुसार निक्षेपों का विचार करते हुए कहा है-'शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय भाव-निक्षेप को ही स्वीकार करते हैं और शेष नय सभी चारों निक्षेपों को स्वीकार करते हैं 42 ' तीनों शब्द नय शुद्ध होने के कारण भाव को ही विषय करते हैं और ऋजुसूत्रादि अशुद्ध होने के कारण चारों निक्षेपों को विषय करते हैं। आगे वे ऋजुसूत्र नय को द्रव्यार्थिक मानकर द्रव्यार्थिक नय में चारों निक्षेप घटा लेते हैं। इन्होंने एक ऐसे मत का भी उल्लेख किया है, जिसके अनुसार ऋजुसूत्र नय नाम और भाव-निक्षेपों को ही विषय करता है। एक मत ऐसा भी है कि संग्रह और व्यवहार नय-स्थापना को छोड़कर शेष तीन निक्षेपों को विषय करते हैं 243 आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलि ने षट्खण्डागम के प्रकृति अनुयोगद्वार में तथा आचार्य यतिवृषभ ने कषायपाहुड के चूर्णि सूत्रों में तथा आचार्य वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम की धवला टीका में निक्षेपों में इस नय-योजना का शंका-समाधानपूर्वक विस्तार से विवेचन किया है। इस प्रकार वस्तु स्वरूप के परिज्ञान के लिए निक्षेप विधि का विवेचन किया गया। 150 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy