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________________ और नय स्वार्थ के एक देश का निश्चायक है। यही दोनों में भेद है। यदि यहाँ पुनः आशंका की जाती है कि स्व और अर्थ का एकदेश वस्तु है या अवस्तु? यदि वस्तु है तो वस्तु का ग्राहक होने से नय प्रमाण ही हुआ और यदि अवस्तु है तो अवस्तु का ग्राहक होने से नय मिथ्याज्ञान कहा जाएगा; क्योंकि अवस्तु को जानने वाला ज्ञान मिथ्याज्ञान होता है। इसका सीधा सा समाधान है कि वस्तु का एकदेश न तो वस्तु है और न अवस्तु । जैसे-समुद्र के एक अंश को न तो समुद्र कहा जाता है और न असमुद्र। यदि समुद्र का एक अंश समुद्र है तो शेष अंश असमुद्र हो जाएगा और यदि समुद्र का प्रत्येक अंश समुद्र है तो बहुत से समुद्र हो जाएँगे और ऐसी स्थिति में समुद्र का ज्ञान कहाँ से हो सकता है?1833 जैसे समुद्र का एकदेश या बूंद न तो समुद्र ही है और न असमुद्र ही, वैसे ही नय के द्वारा जाना गया वस्तु का अंश न तो वस्तु ही है और न अवस्तु ही। यदि समुद्र के एकदेश या बूंद को ही समुद्र कहा जाएगा तो समुद्र के शेषदेश या बूंदें असमुद्र हो जाएँगे। या फिर एक-एक देश या बूंद को समुद्र मानने से बहुत से समुद्र हो जाएंगे और यदि समुद्र के एकदेश या बूंद को असमुद्र कहा जाएगा तो समुद्र के शेषदेश या बूंदें भी असमुद्र कहलाएँगे और ऐसी स्थिति में कहीं भी समुद्रपन का व्यवहार नहीं बन सकेगा। अतः समुद्र का एकदेश न तो समुद्र है और न असमुद्र, किन्तु समुद्र का अंश है। इसीप्रकार नय के द्वारा जाना गया स्वार्थ का एकदेश न तो वस्तु है, क्योंकि स्वार्थ के एकदेश को वस्तु मानने से उसके अन्य देशों के अवस्तुत्व का प्रसंग आता है या वस्तु के बहुत्व का प्रसंग आता है। नय से जाना गया वस्तु का एक देश अवस्तु भी नहीं है, क्योंकि यदि वस्तु के एकदेश को अवस्तु माना जाएगा तो उसके शेष देश भी अवस्तु कहे जाएँगे और ऐसी स्थिति में कहीं भी वस्तु की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। अतः नय के द्वारा जाना गया वस्तु का एकदेश वस्तु का अंश ही है। इस प्रकार प्रमाण के द्वारा जानी गयी वस्तु के एक अंश को प्रधान करके जो वस्तु का निर्णय किया जाता है, वह प्रमाण नहीं, नय है। यद्यपि प्रमाण भी ज्ञान है और नय भी ज्ञान है, दोनों ही ज्ञान है तथापि नय प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के एकअंश में प्रवृत्ति करता है अत: उसे प्रमाण न कहकर नय कहते हैं। यही दोनों में अन्तर है। . यदि पुनः यह कहा जाय कि जैसे अंशी (वस्तु) में प्रवृत्ति करने वाले ज्ञान को प्रमाण माना जाता है वैसे ही वस्तु के अंश में प्रवृत्ति करने वाले अर्थात् जानने वाले नय को प्रमाण क्यों नहीं माना जाता? अतः नय प्रमाण स्वरूप ही है 184 उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि जैसे वस्तु का एक देश न वस्तु है और तत्त्वाधिगम के उपाय :: 129 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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