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________________ कहलाता है।180 एक बात यह भी है कि सामान्य और विशेष या द्रव्य और पर्याय जैसे वस्तु के स्वभाव हैं उसी प्रकार और भी अनेक धर्म उसके स्वभाव हैं। प्रमाणज्ञान इस प्रकार भी सामान्य-विशेषात्मक या द्रव्य-पर्यायात्मक पूर्ण वस्तु को ग्रहण करता है जबकि नय केवल सामान्य अंश को या विशेष अंश को अथवा केवल द्रव्य अंश को या किसी पर्याय (अवस्था विशेष रूप) अंश (धर्म) को ग्रहण करता है। यद्यपि केवल सामान्य या केवल विशेष रूप ही वस्तु नहीं है, जैसा कि अद्वैतवादी और सांख्यमतावलम्बी पदार्थ को केवल सामान्यात्मक ही मानते हैं। बौद्ध पदार्थ को केवल विशेष रूप ही मानते हैं। नैयायिक वैशेषिक सामान्य को एक स्वतन्त्र पदार्थ मानते हैं और विशेष को भी एक स्वतन्त्र पदार्थ मानते हैं तथा उनका द्रव्य के साथ समवाय सम्बन्ध मानते हैं,181 तथापि नय वस्तु को अंश या भेद करके ग्रहण करता है; क्योंकि अनेकधर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म या अंश को लेकर और उस वस्तु के अन्य धर्मों को गौण करके उसका प्रतिपादन करना नय का काम ___ इस प्रकार प्रमाण और नय में अन्तर या भेद स्पष्ट कर देने पर भी जैन दार्शनिकों के समक्ष एक और बड़ा ही जटिल, साथ ही गम्भीर प्रश्न था कि नय क्या है? नय प्रमाण है अथवा अप्रमाण? यदि वह प्रमाण है, तो प्रमाण से भिन्न क्यों? और यदि वह अप्रमाण है तो वह मिथ्याज्ञान होगा और मिथ्याज्ञान के लिए विचार जगत् में क्या कहीं स्थान होता है? ___इन सभी प्रश्नों का मौलिक समाधान जैन दार्शनिकों ने बड़ी गम्भीरता और सतर्कता से किया है। नय के प्रमाण और अप्रमाण-विषयक प्रश्न तथा उनके तर्क सम्मत समाधान आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' में अपनी अनूठी दार्शनिक शैली द्वारा प्रस्तुत किये हैं, जो उनसे पूर्व की रचनाओं में भी उपलब्ध नहीं होते। ___ उक्त विषय को लेकर सर्वप्रथम यह प्रश्न उपस्थित होता है कि स्व (अपने) और बाह्य अर्थ के निश्चायक ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। नय भी स्व और बाह्य अर्थ का निश्चायक है, वह अपने को तथा बाह्य अर्थ को जानता है, अतः वह प्रमाण ही है। ऐसी स्थिति में प्रमाण और नय में कोई भेद नहीं है, किन्तु इस प्रकार का मन्तव्य ठीक नहीं है; क्योंकि स्व और अर्थ के एक देश को जानना नय का लक्षण है। 82 तात्पर्य यह है कि नय स्व अर्थात् अपने और बाह्य अर्थ के एक देश का निश्चायक है और प्रमाण सर्व देश का। इसीलिए कहा गया है प्रमाण सकल वस्तुग्राही होता है और नय विकलवस्तुग्राही। अतः प्रमाण स्वार्थ-निश्चायक है 128 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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