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द्वितीय, 'तत्त्वाधिगम के उपाय' प्रकरण प्रमाण, नय, निक्षेप, अनेकान्त और स्याद्वाद तथा सप्तभंगीवाद के विवेचन से सम्बन्ध रखता है। इस विवेचन में उक्त उपायों में से प्रत्येक के स्वरूप और तत्त्वाधिगम में उनके महत्त्व को स्पष्ट करते हुए 'नय' के स्वरूप और उसकी उपयोगिता तथा सुनय - दुर्नय के अन्तर पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
तृतीय, विषय है 'नयों का समन्वयवादी दृष्टिकोण' । इसमें नयों के सापेक्ष कथन द्वारा जैनदर्शन तथा जैनेतर दर्शनों की वस्तु स्वरूप विषयक मान्यताओं का पर्यालोचन करते हुए उनमें समन्वय तथा सामंजस्य स्थापित करने की विधि का समीक्षात्मक विवेचन किया गया है।
चतुर्थ, नयों के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण का प्रतिपादन करते हुए उनके भेद - प्रभेद - ज्ञान नय, शब्द नय, अर्थ नय तथा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय एवं उनके भेद, नैगमादि सात नयों का स्वरूप और उनके आभासों तथा उनके भेद-प्रभेदों का समालोचनात्मक विश्लेषण किया गया है।
पंचम, 'नयों के आध्यात्मिक दृष्टिकोण' का विवेचन है। इसमें अध्यात्म प्रतिपादक नय - निश्चय और व्यवहार तथा उनके भेद-प्रभेदों की सूक्ष्मताओं और आध्यात्मिक एवं लौकिक जीवन में उनकी उपयोगिताओं को सिद्ध करते हुए उनका दार्शनिक प्रतिपादन प्रस्तुत किया गया है।
'उपसंहार' में अध्ययन के निष्कर्ष को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत कर जीवन की सार्थकता, चिरन्तन एवं शाश्वतिक सुख-शान्ति की उपलब्धि में मूल कारण के रूप में स्याद्वाद तथा नयवाद की उपयोगिता एवं महत्त्व का मूल्यांकन है।
इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में जैनदर्शन के मौलिक तत्त्व 'नयवाद' पर समस्त भारतीय दर्शन एवं जीवन के परिप्रेक्ष्य में प्रत्येक दृष्टिकोण से विचार करने का पूरा प्रयास रहा है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखन में डॉ. धर्मेन्द्रनाथ जी शास्त्री, भूतपूर्व अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, मेरठ कालेज, मेरठ तथा भू. पू. संस्कृत प्राध्यापक एवं निदेशक, भारतीय अध्ययन संस्थान, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र के मार्ग निर्देशक के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
परमादरणीय गुरुवर्य सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री के द्वारा
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