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आलोचना पाठ
दोहा
वंदो पांचों परमगुरु, चौवीसौ जिनराज कहुं शुद्ध आलोचना, शुद्ध करन के काज. १.
सखी छंद-१४ मात्रा
सुनिये जिन ! अरज हमारी, हम दोष किये अति भारी; तिनकी अब निवृत्ति काजा, तुम शरन लही जिनराजा. २. इक बे ते चउ इन्द्री वा, मन-रहित-सहित जे जीवा; तिनको नहि करुना धारी, निरदई व्है घात विचारी. ३. समरंभ समारंभ आरंभ, मन वच तन कीने प्रारंभ ; कृत कारित मोदन करिक, क्रोधादि चतुष्टय धरिक. ४. शत आठ जु इम भेदनतें, अघ कीने पर छेदनतें; तिनकी कहुं कोलौं कहानी, तुम जानत केवल ज्ञानी. ५. विपरीत अकांत विनयके, संशय अज्ञान कुनयके; वश होय घोर अघ कीने, बचतें नहि जात कहीने. ६. कुगुरुनकी सेव जु कीनी, केवल अदयाकर भीनी; या विधि मिथ्यात भ्रमायो, चहु-गतिमधि दोष उपायो. ७. हिंसा पुनि झूठ जु चोरी, परवनितासों दृग जोरी; आरंभ परिग्रह भीनो, पनपाप जु या विधि कीनो. ८.
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