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जेना अनुभव वश्य अ, उत्पन्न-लयनुज्ञान; ते तेथी जुदा विना, थाय न केमे भान. जे संयोगो देखीये, ते ते अनुभव द्रश्य; उपजे नहि संयोग थी, आत्मा नित्य प्रत्यक्ष. जडथी चेतन उपजे, चेतनथी जड थाय ; अवो अनुभव कोईने, क्यारे कदी न थाय. कोई संयोगोथी नहीं, जेनी उत्पत्ति थाय ; नाश न तेनो कोईमां, तेथी नित्य सदाय. क्रोधादि तरतम्यता, सादिकनी मांय ; पूर्व जन्म संस्कार ते, जीव नित्यता त्यांय ; आत्मा द्रव्ये नित्य छ, पर्याये पलटाय; बाळादि वय त्रण्यनु, ज्ञान अकने थाय. अथवा ज्ञान क्षणिकनु, जे जाणी वदनार ; वदनारो ते क्षणिक नहि, कर अनुभव निर्धार. ६९ क्यारे कोई वस्तुनो, केवल होय न नाश ; चेतन पामे नाश तो, केमां भळे तपास
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शंका-शिष्य उवाच
कर्ता जीव न कर्मनो, कर्म ज कर्ता कर्म ; अथवा सहज स्वभाव कां, कर्म जीवनो धर्म.
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