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पण जीव मतार्थमां, निज मानादि काज; पामे नहि परमार्थ ने, अन्-अधिकारी मां ज. नहि कषाय उपशांतता, नहि अन्तर वैराग्य ; सरलपणुं न मध्यस्थता, ओ मतार्थी दुर्भाग्य. लक्षण कह्यां मतार्थीनां, मतार्थ जावा काज ; हवे कहुं आत्मार्थीनां, आत्म अर्थ सुख साज.
आत्मार्थी लक्षण
आत्मज्ञान त्यां मुनिपणुं, ते साचा गुरू होय; बाकी कुलगुरू कल्पना, आत्मार्थी नहि जोय. प्रत्यक्ष सद्गुरू प्राप्तिनो, गणे परम उपकार ; त्रणे योग अकत्व थी, वर्ते आज्ञाधार. अक होय त्रण कालमां, परमारथनो पंथ ; प्रेरे ते परमार्थने, ते व्यवहार समंत. अम विचारौ अंतरे, शोधे सद्गुरू योग; काम अक आत्मार्थनु, बीजो नहि मनरोग. कषायनी उपशांतता, मात्र मोक्ष अभिलाष ; भवे खेद, प्राणीदया, त्यां आत्मार्थ निवास. दशा न अवी ज्यां सुधी, जीव लहे नहि जोग; मोक्षमार्ग पामे नहीं, मटे न अन्तर रोग.
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