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________________ सद्गुरूना उपदेश वण, समजाय न जिन रूप ; समज्या वण उपकार शो ? समज्ये जिनस्वरूप. १२. आत्मादि अस्तित्वनां. जेह निरूपक शास्त्र; प्रत्यक्ष सद्गुरू योग नहीं, त्यां आधार सुपात्र. अथवा सद्गुरूओ कह्यां, जे अवगाहन काज; ते ते नित्य विचारवां, करी मतांतर त्याज. रोके जीव स्वच्छंद तो, पामे अवश्य मोक्ष ; पाम्या प्रेम अनंत छे भाख्यं जिन निर्दोष प्रत्यक्ष सद्गुरू-योग थी, स्वच्छंद ते रोकाय ; अन्य उपाय कर्या थकी, प्राये बमणो थाय. स्वच्छंद मत आग्रह तजी, वर्ते सद्गुरू लक्ष ; समकित तेने भाखियु, कारण गणी प्रत्यक्ष. मानादिक शत्रु महा, निज छंदे न मराय. जातां सद्गुरू शरणमां, अल्प प्रयासे जाय. जे सद्गुरू उपदेशथी, पाम्यो केवल ज्ञान; गुरू रह्या छद्मस्थ पण, विनय करे भगवान वो मार्ग विनय तणो, भाख्यो श्री वीतराग; मूल हेतु ए मार्गनो, समजे कोई सुभाग्य. असद्गुरू से विनयनो, लाभ लहे जो कांई ; महामोहनीय कर्मथी, बड़े भवजल मांही; Jain Education International 23 For Personal & Private Use Only १३ १४. १५. १६. १७. १८. १९. २०. २१. www.jainelibrary.org
SR No.004217
Book TitleBhakti Kartavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapkumar J Toliiya
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1983
Total Pages128
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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