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होती है कि हम ज्ञानियों के सही रास्तों से लाखों योजन दूर उल्टी दिशा में चलने की क्रिया कर रहे हैं । अध्यात्म प्रेमियों को चाहिये कि वे 'सही दिशा में' चलने की 'सही क्रिया' को अपनाये तभी हो सही स्थान पहुंचा जा सकता है ।
ओघा, मुहपत्ती, चरवला, इत्यादि उपकरण और सामायिक आदि 'क्रिया' करते हुए भी मन में पुणिया श्रावक के से भाव नहीं रहने से वे क्रियाएँ अमृतरूपी फलवती नहीं हो पा रही हैं । अतः हमें भावना और दृष्टि को बदलना होगा, अंतर्मुख करना होगा और यह करने के लिये आवश्यक है सच्चे ज्ञानियों का अवलंबन |
इस काल में साक्षात् ज्ञानियों का ऐसा अवलंबन प्राप्त होना दुर्लभ ही नहीं, असंभव भी है। ऐसी अवस्था में उनकी अमृत वाणी का सहारा श्रेयस्कर हो सकता है. जो कि सद्भाग्य से उनके द्वारा लिखित है और ग्रंथों के द्वारा हमारे लिये प्रगट और सुलभ है ।
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ज्ञानी वही है जिनको आत्मा का साक्षात्कार है, प्रतिपल उसका लक्ष्य-सातत्य बना रहता है । खाते-पीते, सोते-जागते, घूमतेफिरते, बोलते-चलते, उनका यह आत्मलक्ष्य कभी भी खंडित नहीं होता । इस युग में ऐसे ही अद्भुत, अद्वितीय, विरल ज्ञानी थे "ज्ञानावतार युगपुरुष श्रीमद् राजचंद्रजी " एवं उन्हीं के पदचिह्नों पर चलने वाले पहुंचे हुए फिर भी, गुप्त, अप्रगट, नारव एवं अति विनम्र रहनेवाले "योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानन्दघनजी", श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम हम्पी के कान्तदर्शी संस्थापक । उनकी अनुभूति संपन्न एवं आत्मज्ञान - निसृत अमृतवाणी को प्रकाशित करने का उक्त आश्रम के ट्रस्टियों ने निश्यय किया और उसके फलस्वरुप यह पुस्तिका ( द्वितीयावृति) एवं सहजानंद सुधा, पत्रसुधा, सहजानंद विलास, इत्यादि प्रस्तुत है !
इन ग्रंथों का आप मननपूर्वक अध्ययन करेंगे, भक्ति करेंगे और तदनुसार प्रयोग करते हुए महाज्ञानी गुरुदेव के बतलाये हुए मार्ग पर
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