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कोई प्रजाजन राजा को देखने का इच्छुक राजद्वार पर जाता है, मगर द्वारपाल उसे वहीं रोक देता है। अंदर घुसने तक नहीं देता। इसी तरह आत्मा का स्वभाव है अनंतदर्शन.....। मगर दर्शनावरण उस अनंतदर्शन को रोकता है। इस दर्शनावरणीय कर्म के उदय से नींद...अंधापा आदि विकृतियाँ पैदा होती है।
3. वेदनीय कर्म
आत्मा का तीसरा गुण अव्याबाध अनंत सुख है । वेदनीय कर्म के उदय से वह दब जाता है। जीव को इस संसार में कृत्रिम कर्मजन्य सुख और दुःख मिलता है। यह शहद की चुपड़ी हुई तलवार की धार के समान है।
जैसे शहद से लिप्त तलवार की धार को चाटने वाले को महँगा पड़ जाता है। उस आनंद की भारी कीमत चुकानी पड़ती है, क्योंकि थोड़ी ही देर में चाटने वाले की जीभ धार से कट जाती है, लहूलुहान हो जाती है ! तब उसे अत्यन्त दुःखी होना पड़ता है।
ठीक उसी तरह शातावेदनीय कर्म के उदय से सुख तो मिलता है, मगर बाँधा हुआ अशातावेदनीय कर्म ज्योंहि उदय में आता है, त्यहि दुःख भी भुगतना पड़ता है।
इस वेदनीय कर्म के उदय से आत्मा में भौतिक सुख-दुःख की अनुभूति रूप विकृति पैदा होती है।
4. मोहनीय कर्म
The King of the Karmas......Commander in Chief of all the Karmas.
कर्मों का राजा और सब कर्मों का सेनाधिपति यह कर्म सबसे
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 57
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