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गोत्रकर्म के बंधहेतु गोत्रकर्म के दो भेद हैं, अत: प्रत्येक के बंधहेतु अलग-अलग बताये जा रहे हैं।
उच्चगोत्र के बंध हेतु 1. देव-गुरु का भक्त बनना। 2. गुरु आदि के प्रति विनयशील रहना। 3. अध्ययन करना कराना। 4. प्रायश्चित लेना आदि।
नीचगोत्र के बंधहेतु नीचगोत्र के बंधहेतु वैसे यहाँ चार बताये जा रहे हैं
1. दूसरों की निंदा करना निंदा का रस इतना मीठा होता है कि आम का मीठा रस भी उसके आगे पानी भरे...! निंदा करने वाला यह समझता है कि मैं सामने वाले को हल्का बताऊँगा तो लोगों को उस पर तिरस्कार होगा....बस इसी क्षणिक आनंद के लिये वह इतनी भयंकर सजा को-कर्मसत्ता के खौफ को अपने सिर लेता है... । याद रखिये 'वो ऐसा है...' यह कहते वक्त एक अंगुली सामने वाले की ओर होती है, तो चार आपकी ओर ही होती है.....निंदा करनी है तो अपनी निंदा करो....आत्मनिंदा ! औरों की निंदा से नीचगोत्र बँधता है....जिससे हीन कुल वालों के घरों में जन्म लेना पड़ेगा, जहाँ व्यक्ति को पल-पल तिरस्कार सहना पड़ता है।
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /150
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