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साधु का वेश बनाया और सीधा पहुँच गया महामुनिवर के पास । उस वक्त वे पारणे की तैयारी कर रहे थे.... यह देख वह मुनि क्रोध से चिल्लाने लगा कि 'बाहर तो रोगग्रस्त साधु दुःखी बैठे हैं और तुम्हें खाने की सूझ रही है ? केवल दिखावे के लिए वैयावच्च का ठेका ले रखा है ? वैयावच्च का स्वांग रचते हो ?' इस तरह साधु रूपधारी देव ने कठोर वचनों के द्वारा नंदिषेण मुनि की तर्जनाभर्त्सना करते हुए भयंकर तिरस्कार किया।
नंदिषेण मुनि ने पारणा करने का विचार छोड़ दिया । सेवा के लिये तुरन्त खड़े हो गये और शांत भाव से उत्तर दिया 'महात्मन् ! मुझे पता नहीं था....इसलिये मैं वापरने (भोजन) के लिये बैठ रहा था...' ऐसा कहकर नंदिषेण मुनि सेवा के लिये पानी लेने को निकल पडे ।
देवमाया थी..... अत: जहाँ मुनि वोहरने जाते, देव अपनी माया से कुछ न कुछ दोष लगा देता, कच्चे पानी के छींटे उड़ेल देता तो कभी हरी-वनस्पति रास्ते में डाल देता.....! नंदिषेण मुनि घूमघूमकर थककर चूर हो गये। तब कहीं जाकर शुद्ध पानी मिला। पानी लेकर मुनि बने हुए देव के साथ नंदिषेण महामुनि वहाँ से नगर के बाहर गये ।
वहाँ एक वृद्ध साधु विष्टा से लिप्त सो रहे थे। उनके शरीर से भयंकर बदबू आ रही थी। पूरे शरीर पर मक्खियाँ भिनभिना रही थी.... ।
नंदिषेण महामुनि ने अत्यन्त समतापूर्वक वृद्धमुनि को अचित्त पानी से साफ किया। बुड्ढे महाराज ने चलने का स्पष्ट इंकार कर दिया कि मेरे पाँव चलने में अशक्त है...!
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 147
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