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________________ २१ श्रीजिनवल्लभ उपसम्पदा पूर्व 'गणि' नहीं थे, यह बात के-उपसम्पदा पूर्व रचित उनके जो दो ग्रन्थ प्राप्त होते है । उनकी निम्ननिर्दिष्ट पङ्क्तियों से प्रतीत होता है - प्रथम कृति पार्श्वनाथस्तोत्र पद्य ३३ [आदिः-नमस्यद्गीर्वाणाधिपतिनृपतिस्तोमविनयत् ] में ''मया प्रथमकाभ्यासात्' कह कर अपना नाम केवल जिनवल्लभ सूचित करते हैं। और इसी प्रकार प्रश्नोत्तरैकषष्ठिशतककाव्य में भी रेजिनवल्लभेन पद से भी यही सूचित करते हैं । अतः उपसम्पदा पश्चात् ही आचार्य अभयदेवने 'गणि' पद प्रदान किया हो, ऐसा प्रतीत होता है । इनके अलावा इन्हीं के पट्टधर युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरि स्वरचित गणधरसार्द्धशतक मे ५० आर्याओं से 'सूरिजिनवल्लहो' की स्तुति करते हैं तथा अपने प्रणीत समस्त ग्रन्थों में 'जिनवल्लभसूरि' को नमस्कार एवं उनकी स्तुति तो श्रद्धापूर्वक करते ही हैं । अतः ऊपरि उल्लिखित बाह्य एवं अन्तरङ्ग प्रमाणों से यह निश्चित है कि, जिनवल्लभ गणि सुविहित श्री अभयदेवसूरि के शिष्य एवं पट्टधर थे । ग्रन्थरचना | गणिवर १२वीं शती के उद्भट विद्वानों में से एक थे। इनका अलङ्कारशास्त्र, छन्दशास्त्र, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष और सैद्धान्तिक विषयों पर एकाधिपत्य था । इनने अपने जीवनकाल में विविध विषयों पर सैकडों ग्रन्थों की रचना की थी, किन्तु दैव दुर्विपाक से बहुत से अमूल्य ग्रन्थ नष्ट हो गए। औ वजह इस समय इनके केवल ४३ ग्रन्थ ही प्राप्त होते हैं। उपलब्ध ग्रन्थों की तालिका निम्न है १. सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार प्रकरण (सार्द्धशतक), २ आगमिकवस्तुविचारसार प्रकरण (षडशीति), ३ पिण्डविशुद्धि प्रकरण, ४ द्वादशकुलक, ५ धर्मशिक्षा प्रकरण, ६ संघटपट्टक, ७ पौषधविधि प्रकरण, ८ प्रतिक्रमण समाचारी प्रा. गा ४०, ९ आप्तपरीक्षा (उल्लेख- षडावश्यक बाला. तरुणप्रभसूरिकृत), १० प्रश्नोत्तरैकषष्ठिशतकाव्यम्, ११ श्रृङ्गारशतक (अनुपलब्ध), १२ स्वप्नाष्टकविचार (अनुपलब्ध), १३ अष्टसप्तति (अनुपलब्ध), १४ सर्वजीवशरीरावगाहना स्तव प्रा.गा., १५ श्रावकव्रतकुलक प्रा. गा. १६२०. आदिनाथादि चरित्र पञ्चक सं. २१ वीरचरित्र ( जयभववण ० ) प्रा. गा. १५, २२ भावादिवारण स्तोत्र गा. ३०, २३ लघु अजितशान्तिस्तव (उल्लासि० ) प्रा. गा. १७, २४ पंचकल्याणकस्तव (सम्मं नमिउण०) प्रा. गा. २६, २५ सर्वजिनपञ्चकल्याणक स्तव (पणमिय सुर०) प्रा. गा. ८, २६ पञ्चकल्याणक स्तोत्र (प्रीतिद्वात्रिंशत्) सं पद्य १३, २७ कल्याणक स्तव ( पुरन्दरपुरस्पर्द्धि) सं. पद्य ७, २८ महाभक्तिगर्भासर्वविज्ञप्तिका (लोयालोय०) प्रा. गा. २७, २९ पार्श्वस्तोत्र (नमस्यद्गीर्वाण) सं. पद्म ३३, ३० पार्श्व स्तोत्र ( पायात्पार्श्वः) सं. पद्य ३९, ३१ पार्श्वस्तोत्र (सिरिभवणथंभणपुरे ) प्रा. गा. ११, ३२ पार्श्व स्तोत्र (त्वमेव माता त्वं पिता) सं. प. ९, ३३ पार्श्व स्तोत्र (), ३४ महावीरविज्ञप्तिका (सुरनरवइकयवंदण) प्रा. १. अज्ञानाद्भणिति स्थितेः प्रथमकाभ्यासात् कवित्वस्य यत् । किञ्चित्सम्भ्रमहर्षविस्मयवशाच्चायुक्तमुक्ते मया ॥ ३३ ॥ २. पद्य ३२ । ३. पद्य १५९, १६० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004215
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2012
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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