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________________ शरीर से, इन्द्रियों से, भावों से और ज्ञान से तादात्म्य कर लेता है।280 वैशेषिक न्यायदर्शन के विचार को ही स्वीकार करता है। पूर्वमीमांसा के अनुसार निषिद्ध और काम्य कर्म करना व नित्य और नैमित्तिक कर्मों को न करना बंधन का कारण है।281 सांख्य-योग के अनुसार पुरुष और प्रकृति में भेद न करना दुःख का कारण है। इन दोनों को गड्ड-मड्ड करना अविद्या के कारण होता है जिसके फलस्वरूप कोई व्यक्ति अशाश्वत को शाश्वत मानता है; अशुद्ध को शुद्ध मानता है; दुःख को सुख मानता है तथा अनात्मा को आत्मा मानता है।282 योग दर्शन के अनुसार अविद्या क्लेश है और अन्य चार प्रकार के क्लेशों का आधार है अर्थात् अस्मिता (अहंकार), राग, द्वेष और अभिनिवेश (जीवेषणा)।283 पुरुष और बुद्धि का तादात्म्य अहंकार है या पुरुष को कर्त्ता व भोक्ता मानना अहंकार है;284 सुखों में आसक्ति राग है;285 पूर्व दुःख के प्रति क्रोध द्वेष है;286 मृत्यु के कारण शरीर व सुख के विषयों को खोने का भय अभिनिवेश है।287 इस प्रकार क्लेश से संसार व उसके दुःख बढ़ते हैं। शंकराचार्य के अनुसार अविद्या का अर्थ है कि प्रकाशमान विषयी पर विषय का आरोप और विषय पर विषयी का आरोप अर्थात् 'मैं यह हूँ और यह मेरा हैं'। बौद्ध दर्शन की 280. न्यायसूत्र-भाष्य-वर्तिका, 4/2/1; भूमिका, पृष्ठ 762, 763 281. Indian Philosophy, 1.P.Vol.II. P. 418 282. योगसूत्र, 2/5, 24 283. योगसूत्र, 2/3, 4 284. योगसूत्र और भाष्य, 2/6 . 285. योगसूत्र और भोजवृत्ति, 2/6, 7 286. योगसूत्र और भाष्य, 2/8 287. योगसूत्र और भोजवृत्ति, 2/9 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (49) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004208
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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