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जैनधर्म के अनुसार रहस्यवादी ने अन्तर्दृष्टि से जगत की सभी वस्तुओं को जान लिया है.52 परिणामस्वरूप किसी प्रकार के संदेह का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है।253
पाँचवाँ, वह व्यक्ति जिसने रहस्यात्मक ऊँचाइयों पर आरोहण किया है उसने अपना तादात्म्य समता भाव से कर लिया है और पुण्यपाप के संग्रह से अपने आपको दूर रखा हुआ है।254 बोधपाहुड का कथन है कि अर्हन्त पुण्य-पाप से परे हैं इसलिए समता भाव में स्थित हैं।255
छठा, कठोपनिषद् और गीता मानती है कि पूर्णता प्राप्त रहस्यवादी असीमित आनन्द का अनुभव करता है।256 मोक्षपाहुड का कथन है कि योगी अहंकार, क्रोध, माया और लोभ को नष्ट करके और शुद्ध स्वभाव को प्राप्त करके सर्वोत्कृष्ट आनन्द का अनुभव करता है।257
सातवाँ, गीता कहती है कि जो सब प्राणियों के लिए रात्रि है वह पूर्णता-प्राप्त आत्मा के लिए जागने का समय है और जो सब प्राणियों के लिए जागने का समय है वह पूर्णता-प्राप्त रहस्यवादी के लिए रात्रि है।258 कुन्दकुन्द के अनुसार योगी व्यवहार में सोता है जब कि आत्मानुभव 252. प्रवचनसार, 1/15 253. प्रवचनसार, 2/105 254. भगवद्गीता, 2/50; 5/19
. मुण्डकोपनिषद्, 3/1/3 255. बोधपाहुड, 30 256. कठोपनिषद्, 1/2/13
भगवद्गीता, 6/28 257. मोक्षपाहुड, 45 258. भगवद्गीता, 2/69
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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