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विकास के साधनों से न गिरे, वह माता का, पिता का, गुरु का व अतिथि का सम्मान करे, निर्दोष क्रियाएँ करे और अपने गुरु के उच्च आचरण का अनुकरण करे।
गीता में उल्लिखित दैवी सम्पदा या सद्गुण'97 को हम विभिन्न वर्गों में बाँट सकते हैं जिससे जैनधर्म की सद्गुणों की धारणा से तुलना की जा सके। (1) प्रथम वर्ग- इन्द्रिय-विषयों से अपने को हटाना और मन-वचन-काय और बुद्धि का संयम। (2) द्वितीय वर्ग- दान, शान्ति, करुणा और आचार्य उपासना। (3) तृतीय वर्ग- अहिंसा, सत्यवचन, अपरिग्रह, त्याग और दोष देखने का अभाव। इसी के अन्तर्गत कामवासना से मुक्ति, क्रोध, अहंकार, लोभ और भय सम्मिलित हैं। (4) चतुर्थ वर्ग- क्षमा, उदारता, शुद्धता, तप, विनय, शास्त्राध्ययन, आध्यात्मिक ज्ञान, व्यवहार में सरलता। (5) पाँचवाँ वर्ग- जन्म-मरण, वृद्धावस्था
और रोग की बुराइयों को समझना। इसके अन्तर्गत ध्यान, संयम, धैर्य, दृढ़ता, अनासक्ति, आध्यात्मिक अनुभव, एकान्त में रुचि, भीड़ में अरुचि, चंचलता का अभाव, मन की पवित्रता, राग-द्वेष से मुक्ति व सभी इष्ट और अनिष्ट घटनाओं में समता भाव। .
तीन प्रकार के तप अर्थात् सात्त्विक, राजस और तामस गीता द्वारा उल्लिखित हैं। (1) सात्त्विक तप तीन प्रकार के होते हैं अर्थात् . शारीरिक, वाचिक और मानसिक। (i) शारीरिक तप- पवित्रता, ब्रह्मचर्य,
अहिंसा, आर्जव (व्यवहार में सरलता), ज्ञानी और आध्यात्मिक गुरु
196. तैत्तिरीयोपनिषद्, 1/11 197. भगवद्गीता, 13/7, 8, 9, 10, 11; 17/1, 2, 3; 18/51,
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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