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________________ सातवाँ अध्याय जैन और जैनेतर भारतीय आचारशास्त्रीय सिद्धान्त पूर्व अध्याय का संक्षिप्त विवरण 'जैन आचार का रहस्यात्मक महत्त्व' नामक पूर्व अध्याय में हमने बताया है कि मनुष्य किस प्रकार कषाय की गुफा से बाहर निकलकर लोकातीत चेतना के आवास में विश्राम करता है ? बहिरात्मा प्रत्येक वस्तु को स्वीकार करता है, अन्तरात्मा सभी को नकारता है लेकिन परमात्मा न तो स्वीकार करता है और न नकारता है किन्तु वह स्वीकारने और नकारने के द्वैत से परे हो जाता है। इस संबंध में प्रथम, हमने रहस्यवाद की जैन धारणा और उसका तत्त्वमीमांसा से संबंध की व्याख्या की है। द्वितीय, हमने मिथ्यात्व में डूबी हुई आत्मा की दुर्दशा को बताया है, साथ में आध्यात्मिक रूपान्तरण के स्वरूप और उसकी उत्पत्ति की प्रक्रिया का निरूपण किया है तथा नैतिक और बौद्धिक रूपान्तरण से उसके भेद को समझाया है। तृतीय, शुद्धीकरण और नैतिक तैयारी की आवश्यकता का दिग्दर्शन कराया गया है और उसमें स्वाध्याय और भक्ति के ऊपर जोर दिया गया है। चतुर्थ, ज्योतिपूर्ण अवस्था की धारणा और दो प्रकार के पतन की संभावना अर्थात् प्रथम, आत्मजाग्रति से और द्वितीय, ज्योतिपूर्ण अवस्था से - इन दोनों को चित्रित किया गया है। पंचम, सदेहमुक्ति और विदेहमुक्ति के परिप्रेक्ष्य में हमने लोकातीत जीवन की विशेषताओं का वर्णन किया है। आध्यात्मिक विकास के चौदह गुणस्थानों के अन्तर्गत उपर्युक्त सभी बातों को सम्मिलित किया Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only (1) www.jainelibrary.org
SR No.004208
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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