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के अस्तित्व को भुलाया नहीं जा सकता है। प्लेटो और अरस्तु ने वासनात्मक भागों का बौद्धिक जीवन से सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया। बैन्थम और मिल उपयोगितावाद के प्रवर्तक हैं। जैन आचार अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख के स्थान पर सभी लोगों के अधिकतम सुख को स्वीकार करता है। कान्ट के अनुसार उच्चतम शुभ ऐसे नैतिक नियम के सम्मान में कार्य करना है जो निरपेक्ष रूप से बिना परिस्थिति, परिणाम और भावात्मक रूप के आदेशित है। जैन आचार के अनुसार अहिंसा का मापदण्ड सद्गुणों के निर्णय के लिए प्रतिपादित है।
तृतीय, व्यक्ति और समाज एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति समाज को गढ़ता है और समाज के द्वारा गढ़ा जाता है। इस तरह व्यक्ति समाज पर निर्भर होता है, किन्तु वह शनैः-शनैः समाज से स्वतंत्र हो जाता है, निर्भरता त्याग देता है। राज्य एक आवश्यक बुराई है। राज्य को चाहिए कि वह अपने कार्यों की व्यवस्था इस प्रकार करे कि जिससे वह पूर्ण सामाजिक व्यवस्था के विकास में सहयोगी बन सके। राष्ट्रिय और अन्तर्राष्ट्रिय क्रियाकलापों को अहिंसा और अनेकान्त के सिद्धान्त पर आधारित होना चाहिए। जाति केवल एक ही है, वह है- मनुष्यता। जीवन में योग्यता जाति का आधार होती है और जाति का अहंकार सम्यग्जीवन को नष्ट कर देता है। यदि आधुनिक प्रजातंत्र को सफल होना है तो जातिवाद समाप्त होना चाहिए। जातिवाद और प्रजातंत्र एकदूसरे के विरोधी हैं।
मुझे लिखते हुए हर्ष है कि डॉ. वीरसागर जैन के प्रेरणाप्रद प्रोत्साहन व मार्गदर्शन ने तथा श्रीमती शकुन्तला जैन की कार्यनिष्ठा ने मेरे सम्पादन-कार्य को सुगम बना दिया, फलस्वरूप इसका खण्ड-1,
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